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महावीर वाणी
जैसे हवा को रोकने के लिए गर्भगृह होता है वैसे ही कषायरूपी हवा को रोकने के लिए ध्यान है और जैसे गर्मी के लिए छाया होती है वैसे ही कषायरूपी गर्मी को नष्ट करने के लिए ध्यान है ।
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१०. वइरं रदणेसु
गोसीसं चंदणं व गंधेसु । वेरुलियं व मणीणं तह ज्झाणं तह ज्झाणं होइ खवयस्स ।।
जहा
रत्नों में वज्र (हीरा) की तरह, गंध द्रव्यों में गोशीर्ष चंदन की तरह और मणियों में वैदूर्य मणि की तरह ध्यान क्षपक के लिए दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तपों में
भू
२१. झाणं कसायडाहे होदि वरदहो दहोव डाहम्मि । झाणं कसायसीदे अग्गी अग्गीव सीदम्मि ।।
(भग० आ० १८६६ )
(भग० आ० १८६६)
जैसे अग्नि पदार्थों को जलाने में समर्थ होती है, वैसे ही कषाय को जलाने में ध्यान श्रेष्ठ है। जैसे शीत को विनाश करने में आग समर्थ है, वैसे ही कषायरूपी शीत को नष्ट करने में ध्यान है ।
(२.)
२२. पंचमहव्वयजुत्तो पंचसु समिदीसु तीसु गुत्तीसु । रयणत्तयसंजुत्तो झाणज्झयणं समा कुणह ।।
(मो० पा० ३३)
तू पाँच महाव्रतों को धारण कर, पाँच समिति, तीन गुप्ति और रत्नत्रय से संयुक्त होकर सदा ध्यान और स्वाध्याय किया कर ।
२३. चरियावरिया वद-समिदि वज्जिया सुद्धभावपभट्टा ।
केई जंपति णरा ण हु कालो झाणजोयस्स ।। (मो० पा० ७३)
जिन्होंने कभी चारित्र का आचरण नहीं किया, जो व्रतों और समितियों से दूर है तथा शुद्ध भावों से भ्रष्ट है, ऐसे कुछ लोग कहते हैं कि यह काल ध्यानयोग के योग्य नहीं है।
२४. भरहे दुस्समकाले धम्मज्झाणं हवेइ साहुस्स ।
तं अप्पसहावठिदे ण हु मण्णइ सो वि अण्णाणि । । (मो० पा० ७६ )
भरत क्षेत्र में इस पंचम काल में भी साधु के धर्मध्यान होता है, किन्तु यह धर्मध्यान उसी साधु के होता है, जो आत्म-स्वभाव में स्थित है। जो ऐसा नहीं मानता वह भी अज्ञानी है ।