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१५. समाधि
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१३. वज्जिय-सयल-वियप्पो अप्प-सरूवे मणं णिरंधतो।
जं चिंतदि साणंदं त धम्मं उत्तमं ज्झाणं ।। (द्वा० अ० ४८२)
जो समस्त अन्य विकल्पों को छोड़कर आत्मस्वरूप में मन को रोककर आनन्द सहित चिंतन किया जाता है, वह उत्तम धर्मध्यान है। १४. जत्थ गुणा सुविसुद्धा उवसम-खमणं च जत्थ कम्माणं । लेसा वि जत्थ सुक्का तं सुक्कं भण्णदे झाणं ।।
(द्वा० अ० ४८३) जहाँ अत्यन्त विशुद्ध गुण हों, जहाँ कर्मों का उपशम तथा क्षय हो और जहाँ लेश्या भी शुक्ल ही हो उसको शुक्ल ध्यान कहते हैं। १५. झाणं-कसायपरचक्कभए बलवाहणढ्ढओ राया।
परचक्कभए बलवाहणढ्ढओ होइ जह राया।। (भग० आ० १६००)
कषायरूप परचक्र का भय होने पर ध्यान वैसा ही है जैसा कि परचक्र का भय होने पर सैन्य और वाहन से दृढ़ राजा। १६. झाणं विसयछुहाए य होइ अण्णं जहा छुहाए वा। झाणं विसयतिसाए उदयं उदयं व तण्हाए।।
(भग० आ० १६०२) जैसे क्षुधा को नष्ट करने के लिए अन्न होता है तथा जिस तरह प्यास को नष्ट करने के लिए जल होता है वैसे ही विषयों की भूख तथा प्यास को नष्ट करने के लिए ध्यान है। १७. झाणं-कसायरोगेसु होदि वेज्जो तिगिंछिदे कुसलो। रोगेसु जहा वेज्जो पुरिसस्स तिगिंछिदे कुसलो।।
(भग० आ० १६०१) जैसे मनुष्य के रोगों की चिकित्सा करने में वैद्य कुशल होता है वैसे ही कषायरूपी रोगों की चिकित्सा करने में ध्यान कुशल होता है। १८. झाणं किलेससावदरक्खा रक्खाव सावदभयम्मि।
झाणं किलेसवसणे मित्तं मित्तंव वसणम्मि।। (भग० आ० १८६७)
जैसे श्वापदों का भय होने पर रक्षक का और संकटों में मित्र का महत्त्व होता है वैसे ही संक्लेश परिणाम-रूप व्यवसनों के समय ध्यान मित्र के समान है। १६. झाणं कसायवादे गम्भघरं मारुदेव गम्भघरं।
झाणं कसायउण्हे छाही छाहीव उण्हम्मि।। (भग० आ० १८६८)