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महावीर वाणी ७. पर-विसय-हरण-सीलो सगीय-विसए सुरक्खणे दक्खो। तग्गय-चिंताविट्ठो णिरंतरं तं पि रुदं पि।।
(द्वा० अ० ४७६) ___ जो पुरुष दूसरे की विषय-सामग्री को हरण करने के स्वभाव से संयुक्त हो, अपनी विषय-सामग्री की रक्षा करने में दक्ष हो, इन दोनों कार्यों में चित्त को निरंतर लवलीन रखता हो उस पुरुष के यह रौद्रध्यान ही है। ८. बिण्णि वि असुहे झाणे पाव-णिहाणे य दुक्ख-संताणे। णच्चा दूरे वज्जह धम्मे पुण आयरं कुणह ।।
(द्वा० अ० ४७७) आर्त और रौद्र ये दोनों ही ध्यान अशुभ हैं। इन्हें पाप का निधान और दुःख की सन्तति-परम्परा करनेवाला जानकर दूर ही से छोड़ो और धर्मध्यान में आचरण करो। ६. धम्मो वत्थु-सहावो खमादि-भावो य दस-विहो धम्मो। रयणत्तयं च धम्मो जीवाणं रक्खणं धम्मो ।।
(द्वा० अ० ४७८) वस्तु का स्वभाव धर्म है। क्षमादि भाव दशविध धर्म हैं। रत्नत्रय धर्म है। जीवों की रक्षा-अहिंसा धर्म है। १०. धम्मे एयग्ग-मणो जो ण वि वेदेदि पंचहा-विसयं ।
वेरग्ग-मओ णाणी धम्मज्झाणं हवे तस्स।। (द्वा० अ० ४७६)
जो धर्म में एकाग्रमन होता है, इन्द्रियों के पाँच प्रकार के विषयों का रसास्वादन नहीं करता और वैरागी होता है उस ज्ञानी के धर्मध्यान होता है। ११. सुविसुद्ध-राय-दोसो बाहिर-संकप्प-वाज्जिओ धीरो।
एयग्ग-मणो संतो जं तिइि तं पि सुह-झाणं ।। (द्वा० अ० ४८०)
रागद्वेष से रहित शुद्ध मनुष्य बाह्य संकल्प से दूर होकर एकाग्र मन से जो चिन्तन करता है वह भी शुभ ध्यान है। १२. स-सरूव-समुभासो णट्ठ-ममत्तो जिदिदिओ संतो।
अप्पाणं चिंतंतो सुह-ज्झाणं-रओ हवे साहू।। (द्वा० अ० ४८१)
जिसे अपने स्वरूप का समुभास हो गया हो, जिसका पर-द्रव्य में ममत्व नष्ट हो गया हो, जो जितेन्द्रिय हो और अपनी आत्मा का चिन्तन करता हो वह शुभ ध्यान में लीन होता है।