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१५. समाधि
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४. ध्यान
(१) १. चरणम्मि तम्मि जो उज्जमो थ आउंजणा य जो होई। सो चेव जिणेहिं तवो भणिदो असढं चरंतरस्स ।।
(भग० आ० १०) शठ्य का परिहार कर आचरण करनेवाले मनुष्य का उस आचरण में जो उद्यम और उपयोग होता है, उसे ही जिन भगवान ने तप कहा है। २. असुहं अट्ट-रउदं धम्म सुक्कं च सुहयरं होदि।
अट्ट तिव्व-कसायं तिव्व-तम-कसायदो रुदं ।। (द्वा० अ० ४७१)
आर्त और रौद्र-ये दोनों ध्यान अशुभ ध्यान हैं तथा धर्म और शुक्ल ये दोनों क्रमशः शुभ और शुभतर ध्यान हैं। इनमें आदि का आर्तध्यान तीव्र कषाय से होता है और रौद्रध्यान तीव्रतम कषाय से। ३. मंद-कषायं धम्मं मंद-तम-कसायदो हवे सुक्कं ।।
अकसाए वि सुयड्ढे केवल-णाणे वि तं होदि।। (द्वा० अ० ४७२)
धर्मध्यान मन्दकषाय वाले के होता है और शुक्लध्यान मंदतम कषायवाले के। यह शुक्लध्यान कषायरहित श्रुतज्ञानी तथा केवलज्ञानी के भी होता है। ४. दुक्खयर-विसय-जोए केण इमं चयदि इदि विचिंतंतो।
चेट्ठदि जो विक्खित्तो अटुं-ज्झाणं हवे तस्स । (द्वा० अ० ४७३)
जो पुरुष दुःखकारी विषय का संयोग होने पर ऐसा चिंतन करता है कि यह कैसे दूर हो और विक्षिप्तचित्त होकर (रुदनादि) चेष्टा करता है उसके आर्तध्यान होता है। ५. मणहर-विसय-वियोग कह तं पावेमि इहि वियप्पो जो। संतावेण पयट्टो सो च्चिय अट्ट हवे झाणं ।।
(द्वा० अ० ४७४) जो मनोहर विषय के वियोग होने पर ऐसा चिंत्तन करता है कि उसको कैसे पाऊँ और संताप रूप प्रवृत्ति करता है उसके भी आर्तध्यान होता है।। ६. हिंसाणंदेण जुदो असच्च-वयणेण परिणदो जो हु। तत्थेव अथिर-चित्तो रुदं झाणं हवे तस्स ।। (द्वा० अ० ४७५)
जो पुरुष हिंसा में आनन्दयुक्त होता है, असत्यवचन में प्रवृत्ति करता है और उन्हीं में अस्थिर चित्त रहता है उसके रौद्रध्यान होता है।