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________________ महावीर वाणी जो आत्मस्वरूप के चिन्तन में रत होता है, दुर्जन- सज्जन में मध्यस्थ होता है, अपने शरीर के प्रति भी ममत्व-रहित होता है, उसके कायोत्सर्ग तप होता है। ४०. जो देह धारण- परो उवयरणादी - विसेस - संसत्तो । बाहिर - ववहार-रओ काओसग्गो कुदो तस्स ।। ११६ ( द्वा०अ० ४६६ ) जो देह-पालन में परायण होता है, उपकरणादि में विशेष संयुक्त होता है और बाह्य व्यवहार करने में रत होता है उसके कायेत्सर्ग तप कैसे हो सकता है ? ४१. अब्भंतरसोहणओ एसो अब्भंतरो तओ भणिओ । ( मू० ४१२, क, ख ) अन्तरंग को शुद्ध करनेवाला यह अभ्यन्तर तप कहा है। ४२. एसो बारस-भेओ उग्ग-तवो जो चरेदि उवजुत्तो । सो खविय कम्म-पुंजं मुत्ति - सुहं अक्खयं लहइ ।। ( द्वा० अ० ४८८ ) यह बारह प्राकर का तप है। जो उपयोग सहित इस उग्र तप का आचरण करता है, वह पुरुष कर्म - पुञ्ज का क्षय कर अक्षय मोक्ष सुख को प्राप्त करता है। ४३. सो हु तवो कायव्वो जेण मणो मंगुलं जेण न इंदियहाणी जेण य जोगा ण न चिंतेइ । हायंति । । ( महा० नि० चू० १ : १४) वही तप करना चाहिए जिससे मन अमंगल विचार न करने लगे, जिससे इन्द्रियों की हानि न हो और जिससे योग शिथिल न हों । ४४. होइ सुतवो य दीओ अण्णाणतमंधयारचारिस्स । सव्वावत्थासु तओ वढ्ढदि य पिदा व पुरिस्स ।। ( भग०आ० १४६ ६ ) ज्ञानरूपी अंधकार में चलनेवाले लोगों के लिए सुआचरित तप दीपक के समान होता है। तप सभी अवस्थाओं में मनुष्य के साथ पिता के समान व्यवहार करता है। ४५. धादुगदं जह कणयं सुज्झइ धम्मंतमग्गिणा महदा । सुज्झइ तवग्गिधंतो तह जीवो कम्मधादुगदो || (भग० आ० १८५३) जैसे धातुगत सुवर्ण महान् अग्नि से तपाया जाने पर शुद्ध हो जाता है, उसी प्रकार कर्म-धातुगत जीव तपरूपी अग्नि द्वारा तपाया जाने पर शुद्ध हो जाता है। ४६. डहिऊण जहा अग्गी विद्वंसदि सुबहुगंपि तणरासी । विद्धंसेदि तवग्गी तह कम्मतणं सुबहुगंपि । । (भग० आ० १८५१) जैसे अग्नि बहुत सारी तृणराशि को भी जलाकर विध्वंस कर देती है वैसे ही तापाग्नि बहुत सारे कर्म - तृणों को विध्वंस कर देती है।
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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