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________________ ११५ १५. समाधि ३३. अट्ट च रुद्दसहियं दोण्णिवि झाणाणि अप्पसत्थाणि। धम्म सुक्कं च दुवे पसत्थझाणाणि णयाणि।। (मू० ३६४) आर्त और रौद्र ये दो ध्यान अशुभ हैं तथा धर्म और शुक्ल ये दो ध्यान शुभ हैं, ऐसा जानना चाहिए। ३४. अमणुण्णजोगेइट्ठविओगपरीसहणिदाणकरणेसु । अटें कसायसहियं झाणं भणिदं समासेण ।। (मू० ३६५) अप्रिय वस्तु के संयोग होने पर, इष्ट वस्तु के वियोग होने पर, परीषहों के उत्पन्न होने पर, निदान (परलोक संबंधी भोगों की वांछा) के होने पर कषाय सहित मन का व्यथित होना-इसे संक्षेप में आर्तध्यान कहा गया है। ३५. तेणिक्कमोससारक्खणेसु तध चेव छविहारंभे। रुदंकसायसहिदं झाणं भणियं समासेण ।। (मू० ३६६) चोरी, मृषा, स्वधन-संरक्षण और छहकाय के जीवों के आरंभ में कषाय-सहित मन का आनंदित होना-इसे संक्षेप में रौद्र ध्यान कहा है। ३६. अपहट्ट अट्टरुद्दे महाभए सुग्गदीयपच्चूहे। धम्मे वा सुक्के वा होहि समण्णागदमदीओ।। (मू० ३६७) आर्त और रौद्र ये दो ध्यान महाभय के हेतु और सुगति को रोकने वाले हैं। इसलिए इन दोनों का त्यागकर तू धर्मध्यान और शुक्लध्यान- इन दो ध्यानों में बुद्धि कर। ३७. दुविहो य विउस्सगो अभंतर बाहिरो मुणेयव्वो। अभंतर कोहादी बाहिर खेत्तादियं दव्।। (मू० ४०६) व्युत्सर्ग तप दो प्रकार का होता है-अभ्यन्तर और बाह्य । क्रोधादि का त्याग अभ्यन्तर व्युत्सर्ग है और क्षेत्रादि द्रव्यों का त्याग बाह्य व्युत्सर्ग है। ३८. सयणासणठाणे वा जे उ भिक्खू न वावरे। कायस्स विउस्सग्गो छ8ो सो परिकित्तिओ।। (उ० ३० : ३६) सोने, बैठने या खड़े होने के समय जो व्याप्त नहीं होता (काया को नहीं हिलाता-डुलाता) उसके काया की चेष्टा का जो परित्याग होता है, उसे व्युत्सर्ग कहा जाता हैं। यह अभ्यन्तर तप का छठा प्रकार है। ३६. ससरूव-चिंतण-रओ दुज्जण-सुयणाण जो हु मज्झत्थो। देहे वि णिम्ममत्तो काओसग्गो तवो तस्स ।। (द्वा० अ० ४६८)
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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