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________________ ११४ महावीर वाणी २६. जो उवयरदि जदीणं उवसग्ग-जराइ-कायाणं। पूजादिसु णिरवेक्खं वेज्जावच्चं तवो तस्स।। (द्वा० अ० ४५६) ___जो अपनी पूजा आदि की अपेक्षा न रखता हुआ उपसर्ग तथा वृद्धावस्था आदि से क्षीणकाय यतियों का उपचार करता है उसके वैयावृत्त्य तप होता है। २७. जो वावरइ सरूवे सम-दम-भावम्मि सुद्ध-उवजुत्तो। लोय-ववहार-विरदो वेयावच्चं परं तस्स ।। (द्वा० अ० ४६०) जो लोक-व्यवहार से विरक्त होकर शम-दम-भावरूप अपने आत्मस्वरूप में शुद्धोपयोगमय प्रवृत्ति करता है, उसके उत्कृष्ट वैयावृत्त्य होता है। २८. वायणा पुच्छणा चेव तहेव परियट्टणा। अणुप्पेहा धम्मकहा सज्झाओ पंचहा भवे ।। (उ० ३० : ३४) स्वाध्याय पाँच प्रकार का होता है-वाचना (अध्यापन), पृच्छना (अर्थ को दूसरों से पूछना), परिवर्तना (पाठ करना). अनुप्रेक्षा (अर्थचिन्तन) और धर्मकथा। २६. गुणपरिणामो सढ्ढा वच्छल्लं भत्तिपत्तलंभो य। संधाणं तवपूया अव्वोच्छित्ती समाधी य।। (भग० आ० ३०६) वैयावृत्त्य से गुणग्राह्यता, श्रद्धा, भक्ति, वात्सल्य, सदपात्र की प्राप्ति, विच्छिन्न सम्यक्त्वादि गुणों का पुनः संधान, तप, पूज्यता, तीर्थ की अव्युच्छित्ति, समाधि आदि गुणों की प्राप्ति होती है। ३०. पर-तत्ती-णिरवेक्खो दुट्ठावियप्पाण णासण-समत्थो। तच्च-विणिच्चय-हेदू सज्झाओ, झाण-सिद्धियरो।। (द्वा० अ० ४६१) स्वाध्याय दूसरों की निंदा में निरपेक्ष, मन के दुष्ट विकल्पों का नाश करने में समर्थ, तत्त्व के विनिश्चय का हेतु और ध्यान की सिद्धि करनेवाला होता है। ३१. बारसविधझिवि तवे सभंतरबाहिरे कुसलदिवें। णवि अस्थि णवि य होही सज्झायसमो तवोकम्मं ।। (मू० ४०६) कुशल पुरुष द्वारा उपदिष्ट अभ्यन्तर और बाह्य भेदवाले बारह तपों में स्वाध्याय तप के समान दूसरा कोई भी न तो है और न होगा। . ३२. अंतो-मुहुत्त-मत्तं लीणं वत्थुम्मि माणसं णाणं। झाणं भण्णदि समए असुहं च सुहं च तं दुविहं ।। (द्वा० अ० ४७०) जो मन-संबंधी ज्ञान वस्तु में अंतर्मुहूर्तमात्र लीन होता है, वह सिद्धांत में ध्यान कहा गया है। वह शुभ और अशुभ दो प्रकार का होता है। १. मिलावें मू० ३६३। .
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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