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१५. समाधि
११३ दोषों की आलोचना करने पर आचार्य ने जो कुछ प्रायश्चित्त दिया हो आत्मार्थी उस सबको श्रद्धापूर्वक करता है और हृदय में ऐसी शंका नहीं करता है कि प्रायश्चित्त दिया वह थोड़ा है या बहुत है। २०. पणरवि काउं णेच्छदि तं दोसं जइ वि जाइ सय-खंडं। एवं णिच्चय-सहिदो पायच्छित्तं तवो होदि।।
(द्वा० अ० ४५४) अपने सौ खंड भी हो जायँ तो भी लगे हुए दोष का प्रायश्चित्त ले लेने के बाद उसे पुनः नहीं करना चाहता। इस प्रकार के निश्चय वाले पुरुष के प्रायश्चित्त नामक तप होता है। २१. अमुट्ठाणं अंजलिकरणं तहेवासणदायणं ।
गुरुभत्तिभावसुस्सूसा विणओ एस विगाहिओ।। (उ० ३० : ३२) ... खड़े होना, हाथ जोड़ना, आसन देना तथा गुरुजनों की भक्ति और भावपूर्वक शुश्रूषा करना विनय कहलाता है। २२. दंसणणाणे विणओ चरित्ततव ओवचारिओ विणओ।
पंचविहो खलु विणओ पंचमगइणायगो भणिओ।। (मू० ३६४)
दर्शनविनय, ज्ञानविनय, चारित्रविनय, तपोविनय, उपचारविनय-इस तरह विनय के पाँच भेद हैं। यह विनय मोक्ष गति को प्राप्त करानेवाला कहा गया है। २३. दंसण-णाण-चरित्ते सुविसुद्धो जो हवेइ परिणामो।
बारस-भेदे वि तवे सो च्चिय विणओ हवे तेसिं ।। (द्वा० अ० ४५७)
दर्शन में, ज्ञान में, चारित्र में और बारह प्रकार के तप में जो अति विशुद्ध परिणाम होता है वही उनका विनय है। २४. रयण-त्तय-जुत्ताणं अणुकूलं जो चरेदि भत्तीए।
भिच्चो जह रायाणं उवयारो सो हवे विणओ।। (द्वा० अ० ४५८)
रत्नत्रय के धारक पुरुषों के प्रति शिष्य जो भक्तिपूर्वक अनुकूल आचरण करता है जैसे भृत्य राजा के प्रति.. वह उपचार विनय है। २५. आयरियमाइयम्मि य वेयावच्चम्मि दसविहे।
आसेवणं जहाथामं वेयावच्चं तमाहियं ।। (उ० ३० : ३३)
आचार्य आदि सम्बन्धी दस प्रकार के वैयावृत्त्य का यथाशक्ति आसेवन करने को वैयावृत्त्य कहा जाता है।