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________________ ११२ महावीर वाणी जो पूजा आदि में निरपेक्ष है, संसार, शरीर और भोगों से विरक्त है, अभ्यंतर तपों में कुशल है, उपशमशील है तथा महापराक्रमी है और एकान्तवास करता है, उसके विविक्त शय्यासन तप होता है। १४. सो णाम बाहिरतवो जेण मणो दुक्कडं ण उद्वेदि। जेण य सद्धा जायदि जेण य जोगा ण हीयते।। (मू० ३५८) वही बाह्य तप है, जिससे कि चित्त में दुष्कृत उत्पन्न न हो, जिससे श्रद्धा उत्पन्न हो और जिससे योगों (मूल गुणों) में कमी न हो। १५. णिद्दाजओ य दढझाणदा विमुत्ती य दप्पणिग्घादो। सज्झायजोगणिविग्घदा य सुहदुक्खसमदा य।। देहस्स लाघवं हलहणं उवसमो तहा परमो। जवणहारो संतोसदा य जहसंभवेण गुणा।। (भग० आ० २४१, २४४) निद्रा-जय, ध्यान का दृढ़ होना, मुक्ति (त्याग), दर्प का नाश, स्वाध्याय-योग में निर्विघ्नता और सुख-दुःख मे समता तथा शरीर का हल्कापन, स्नेह का नाश, परम उपशम, यात्रामात्र आहार और संतोष-ये सब तप द्वारा संभव गुण हैं। १६. एसो दु बाहिरतवो बाहिरजणपायडो परम घोरो।। अभंतरजणणादं वोच्छं अमंतरं वि तवं ।। (मू० ३५६) यह छह प्रकार का बाह्य तप है जो बाह्यजनों को भी प्रगट है जो अत्यन्त घोर है। और जो आगम में प्रवेश करनेवाले ज्ञानी जनों को ज्ञात है वह आभ्यंतर तप है। १७. पायच्छित्तं ति तवो जेण विसुज्झदि हु पुवकयपावं । पायच्छित्तं पत्तोत्ति तेण वुत्तं दसविहं तु।। (मू० ३६१) व्रत मे लगे हुए दोषों को प्राप्त हुआ पुरुष जिससे पूर्व किये हुए पापों से निर्दोष हो जाता है, वह प्रायश्चित्त तप है। उसके आलोचन आदि दस भेद हैं। १८. अह कह वि पमादेण व दोसो जदि एदि तं पि पयडेदि। णिद्दोस-साहु-मूले दस-दोस-विवज्जिदो-होदुं ।। (द्वा० अ० ४५२) यदि किसी भी प्रमाद से अपने चारित्र में दोष आया हो तो आत्मार्थी उसको निर्दोष साधु के पास दस दोषों से रहित होकर प्रगट करे। १६. जं किं पि तेण दिण्णं तं सव्वं सो करेदि सद्धाए। णो पुण हियए संकदि किं थोवं किं पि बहुवं वा।। (द्वा० अ० ४५३)
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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