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________________ १५. समाधि १११ ७. खीरदहिसप्पिमाई पणीयं पाणभोयणं। परिवज्जणं रसाणं तु भणियं रसविवज्जणं।। (उ० ३० : २६) दूध, दही, घृत आदि तथा प्रणीत पान-भोजन और रसों के वर्जन को रस-विवर्जन तप कहा जाता है। ८. संसार-दुक्ख-तट्ठो विस-समयं-विसयं विचिंतमाणो जो। णीरस-भोज्जं भुंजइ रस-चाओ तस्स सुविसुद्धो।। (द्वा० अ० ४४६) जो संसार के दुःख से तप्त होकर विषयों को विष के समान सोचता हुआ नीरस भोजन करता है, उसके निर्मल रस-त्याग तप होता है। ६. ठाणा वीरासणाईया जीवस्स उ सुहावहा। उग्गा जहा धरिज्जंति कायकिलेसं तमाहियं ।। (उ० ३० : २७) आत्मा के लिए सुखावह वीरासन आदि उत्कट आसनों का जो अभ्यास किया जाता है, उसे कायक्लेश तप कहा जाता है। १०. दुस्सह-उवसग्ग-जई आतावण-सीय-वाया-खिण्णो वि। ___ जो णवि खेदं गच्छदि कायकिलेसो तवो तस्स।। (द्वा० अ० ४५०) जो दुःसह उपसर्गों को जीतने वाला होता है, आतप, शीत और वात-पीडित होकर भी चित्त में खेद नहीं करता, उसके कायक्लेश तप होता है। ११. एगंतमणावाए इत्थीपसुविवज्जिए। सयणासणसेवणया विवित्तसयणासणं।। (उ० ३० : २८) एकान्त, अनापात (जहाँ कोई आता-जाता न हो) और स्त्री-पशु आदि से रहित शयन और आसन का सेवन करना विविक्त शयनासन (संलीनता) तप है। १२. जो राय-दोस-हेदू आसण-सिज्जादियं परिच्चयइ। अप्पा णिव्विसय सया तस्स तवो पंचमो परमो।। (द्वा० अ० ४४७) जो रागद्वेष के हेतु आसन, शय्या आदि का परित्याग करता है तथा सदा अपने आत्मस्वरूप में रहता है, उसके उत्कृष्ट विविक्त शय्यासन तप होता है। १३. पूजादिसु णि रवेक्खो संसार-सरीर-भोग-णिविण्णो। अभंतर-तव-कुसलो उवसम-सीलो महासंतो।। (द्वा० अ० ४४८) १. मिलावें मू० ३५२। २. मिलावें मू० ३५६ ।
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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