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३. तप
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१. बारस - भेओ भणिओ णिज्जर-हेऊ तवो समासेण । पयारा एदे भणिज्जमाणा
तस्स
मुणेयव्वा ।। ( द्वा० अ० ४३८)
कर्म - निर्जरा का हेतु तप संक्षेप में बारह प्रकार का कहा गया है। उसके भेद जो अब कहे जायेंगे, उन्हें जानना चाहिए ।
२. जो मण - इंदिय - विजई इह भव-परलोय सोक्ख - णिखेक्खो । विय णिवसइ सज्झाय-परायणो होदि । ।
अप्पाणे
महावीर वाणी
३. कम्माण णिज्जरठ्ठे आहारं परिहरेइ लीलाए । एग - दिणादि- पमाणं तस्स तवं अणसणं होदि । ।
जो मन और इन्द्रियों को जीतने वाला है, इहलोक और परलोक के विषय सुखों की अपेक्षा - रहित है, जो आत्म-स्वरूप में वास करता है तथा स्वाध्याय में तत्पर हे, उसके अनशन तप होता है ।
( द्वा० अ० ४४० )
( द्वा० अ० ४४१ )
एक दिन आदि की मर्यादा से कर्मों की निर्जरा के लिए क्रीड़ा की तरह आहार को छोड़ता है, उसके अनशन तप होता है ।
४. बत्तीसा किर कवला पुरिसस्स दु होदि पयदि आहारो । एगकवलादिहिं ततो ऊणियगहणं उमोदरियं ।। (मू० ३५०)
५. धम्मावासयजोगे णाणादीये उवग्गहं कुणदि । णय इदियप्पदोसयरी उमोदरितवोवृत्ती ।।
पुरुष का स्वाभाविक आहार बत्तीस कवल-ग्रास प्रमाण होता है। उनमें से एक कवल आदि का कम करना अवमौदर्य तप है ।
६. गोयरपमाण दायगभायणणाणाविधाण जं गहणं ।
तह एसणस्स गहणं विविधस्स वुत्तिपरिसंखा ।।
(मू० ३५१)
धर्म, आवश्यक, योग, ज्ञानादि में अवमौदर्य तप की वृत्ति उपकार करती है और इन्द्रियों को स्वेच्छाचारी नहीं होने देती ।
(मू० ३५५) गृहों का प्रमाण तथा दाता, पात्र, भोजन आदि के अनेक तरह के विकल्प कर अशन आदि का ग्रहण करना वृत्तिपरिसंख्या' तप है ।
१. इस तप का नाम भिक्षाचर्या भी है और वृत्तिसंक्षेप भी ।