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१५. समाधि
स्वाध्याय से आत्महित का ज्ञान, बुरे भावों का सवरण, नित्य नया संवेग, चारित्र में निश्चलता, तप, उत्तम भाव और परोपदेशकता - ये गुण उत्पन्न होते हैं । १०. बारसविहम्मि य तवे सब्भंतरबाहिरे कुसलदिट्ठे ।
वि अत्थि ण वि य होहिदि सज्झायसमं तवोकम्मं । । '
कुशल पुरुष द्वारा उपदिष्ट अभ्यन्तर और बाह्य भेद वाले बारह प्रकार के तपों में स्वाध्याय के समान दूसरा कोई तपकर्म न तो है और न होगा । जेणं गच्छइ सोग्गइं।
११. इहलोगपारत्तहियं
बहुस्सुयं पज्जुवासेज्जा पुच्छेज्जत्थ विणिच्छयं । ।
१२. सुत्तत्थं जिणभणियं जीवाजीवादिबहुविहं अत्थं ।
हेयहियं च तहा जो जाणइ सो हु सुद्दिट्ठी ||
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(द०८ : ४३) जिनके द्वारा इहलोक और परलोक में हित होता है, मृत्यु के पश्चात् सुगति प्राप्त होती है, उस ज्ञान की प्राप्ति के लिए मनुष्य बहुश्रुत की पर्युपासना करे और अर्थ विनिश्चय के लिए प्रश्न करे ।
(भग० आ० १०७)
१३. जिणवयणमोसहमिणं विसयसुहविरेयणं अमिदभूयं ।
जरमरणवाहिहरणं
(सू० पा० ५) जो मनुष्य जिनेन्द्र देव के द्वारा कहे हुए सूत्र में वर्णित जीव आदि अनेक पदार्थों को तथा हेय और उपादेय को जानता है वह सम्यग्दृष्टि है ।
खयकरणं सव्वदुक्खाणं । ।२ (द० पा० १७)
यह जिनवचन औषधिरूप है । विषय सुखों का विरेचन करने वाला है। अमृत के समान है। जरा-मरण रूपी व्याधि का हरण करने वाला और सर्व दुःखों का क्षय करने वाला है।
१. मू० ४०६ ।
२. मू० ६५ ८४१ ।
१४. बालमरणाणि बहुसो अकाममरणाणि चेव य बहूणि ।
मरिहिंति ते वराया जिणवयणं जे न जाणंति | | ( उ० ३६ : २६१) जो प्राणी जिन वचनों से परिचित नहीं हैं, वे बेचारे अनेक बार बाल-मरण तथा अकाम-मरण करते रहेंगे ।
१५. जिणवयणणिच्छिदमदी अवि मरणं अब्भुवेंति सप्पुरिसा ।
णय इच्छंति अकिरियं जिणवयणवदिक्कमं कादुं ।। (मू० ८४२) जिनकी बुद्धि जिन-वचनों में निश्चित है ऐसे सत्पुरुष मरण की इच्छा कर लेते हैं परन्तु जिन-वचन का उल्लंघन कर कभी भी बुरा काम नहीं करना चाहते ।