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महावीर वाणी
३. जो जिए-सत्थं सेवदि पंडिय-माणी फलं समीहंतो। __साहम्मिय-पडिकूलो सत्थं पि विसं हवे तस्स ।।(द्वा० अ० ४६३)
जो अपनी पूजा, सत्कार आदि फल की कामना करता हुआ जिन-शास्त्र पढ़ता है, साधर्मी के प्रतिकूल आचरण करता है वह पण्डित न होने पर भी अपने को पण्डित मानने वाला है। उसके लिए वह शास्त्र का अध्ययन विषरूप परिणमन करता है। ४. जो जुद्ध-काम-सत्थं रायदोसेहिं परिणदो पढइ।
लोयावंचण-हेदूं सज्झाओ णिप्फलो तस्स।। (द्वा० अ० ४६४)
राग-द्वेष के परिणाम से जो मनुष्य लोगों को ठगने के लिए युद्धशास्त्र और कामशास्त्र को पढ़ता है, उसका स्वाध्याय निष्फल है। ५. जो अप्पाणं जाणदि असुइ-सरीरादु तच्चदो भिण्णं।
जाणग-रूव-सरूवं सो सत्थं जाणदे सव्वं ।। (द्वा० अ० ४६५)
जो पुरुष अपनी आत्मा को अशुचि शरीर से तत्त्वतः भिन्न ज्ञायक-स्वरूप जानता है वह सब शास्त्रों को जानता है। ६. जो णवि जाणदि अप्पं णाण-सरूवं सरीरदो भिण्णं ।
सो णवि जाणदि सत्थं आगम-पाठं कुणंतो वि।।(द्वा० अ० ४६६)
जो अपनी आत्मा को ज्ञान स्वरूप और शरीर से भिन्न नहीं जानता वह आगम का पाठ करते हुए भी शास्त्र को नहीं जानता। ७. सज्झायं कुव्तो पंचेंदियसंवुडो तिगुत्तो य।
हवदि य एअग्गमणो विणएण समाहिओ भिक्खू' ।। (मू० ४१०) ___ जो पुरुष स्वाध्याय करता है, वह पाँचों इन्द्रियों से संवृत, तीन गुप्तियों से गुप्त तथा एकाग्रचित्त हो विनय से समाहित होता है। ८. विणएण सुदमधीदं जदिवि पमादेण होदि विस्सरिदं।
तमुवठ्ठादि परभवे केवलणाणं च आवहदि।। (मू० २८६)
विनय से अध्ययन किया हुआ श्रुत किसी समय प्रमाद से विस्मृत भी हो जाता है तो अन्य जनम में स्मरण हो जाता है और क्रमशः केवलज्ञान को प्राप्त करता है। ६. आदहिदपइण्णा भावसंवरो णवणवो य संवेगो।
णिक्कंपदा तवो भावणा य परदेसिगत्तं च।। (भग० आ० १००)
१. मू० ६६६: भग० आ० १०४।