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१५. समाधि
जो जिन-वचनों में रत होता है, जो बकवास नहीं करता, जो सूत्रार्थ से प्रतिपूर्ण होता है, जो अत्यन्त मोक्षार्थी होता है, वह आचार-समाधि के द्वारा संवृत होकर इन्द्रिय और मन का दमन करने वाला तथा मोक्ष को निकट करने वाला होता है।
६. अभिगम चउरो समाहिओ सुविसुद्धो सुसमाहियप्पओ । विउलहियसुहावहं पुणो कुव्वइ सो
पयखेममप्पणो ।।
जो समाधियों को जानकर सुविशुद्ध और सुसमाहित चित्त वाला होता है, वह अपने लिए विपुल हितकर और सुखकर मोक्षस्थान को प्राप्त करता है।
७. जाइमरणाओ मुच्चई इत्थंथं च चयइ सव्वसो । सिद्धे वा भवइ सासए देवे वा अप्परए महिड्दिए । ।
२. स्वाध्याय
१. सूई जहा ससुत्ता ण णस्सदि दु पमाददोसेण । एवं ससुत्तपुरिसो ण णस्सदि तह पमाददोसेण' । ।
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(द० ६ (४) : ६)
वह जन्म-मरण से मुक्त होता है, नरक आदि अवस्थाओं को पूर्णतः त्याग देता है । इस प्रकार वह या तो शाश्वत सिद्ध होता है अथवा अल्प कर्म वाला महर्द्धिक देव ।
(द० ६ (४) : ७)
(मू० ६७१) जैसे प्रमाददोष से कूड़े में गिरी हुई सूत्र सहित सूई गुम नहीं होती (खोजने पर मिल जाती है), उसी तरह शास्त्र- स्वाध्याय से युक्त पुरुष प्रमाददोष से स्खलित होने पर भी नष्ट नहीं होता (जागृत होते ही आत्म-स्वरूप को पा लेता है) ।
१. उत्त० २६ : ५६
२. पूजादिसु णिरवेक्खो जिण-सत्थं जो पढेइ भत्तीए ।
कम्म-मल-सोहणट्ठे सुय - लाहो सुह-यरो तस्स ।। ( द्वा०अ० ४६२ )
जहा सुई सत्ता पडिवावि न विणस्सइ ।
तहा जीवे ससुत्ते संसारे न विणस्सइ ।।
जो अपनी पूजा आदि की कामना से निरपेक्ष रह कर्म रूपी मैल का नाश करने के लिए भक्तिपूर्वक जिन- शास्त्र का अध्ययन करता है उसके सुखकारी श्रुत का लाभ होता है ।