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समाधि
१. चतुः समाधि १. विणए सुए अ तवे आयारे निच्चं पंडिया।
अभिरामयंति अप्पाणं जे भवंति जिइंदिया।। (द० ६ (४) : १)
जो जितेन्द्रिय होते हैं वे पण्डित पुरुष अपनी आत्मा को सदा विनय, श्रुत, तप और आचार में लीन किए रहते हैं। २. पेहेइ हियाणुसासणं सुस्सूसइ तं च पुणो अहिट्ठए। न य माणमएण मज्जइ विणयसमाही आयट्ठिए।।
(द० ६ (४) : २) मोक्षार्थी हितानुशासन की अभिलाषा करता है-एसे सुनना चाहता है, शुश्रूषा करता है-अनुशासन को सम्यग् रूप से ग्रहण करता है, अनुशासन के अनुकूल आचरण करता है और मैं विनय-समाधि में कुशल हूं-इस प्रकार गर्व के उन्माद से उन्मत्त नहीं होता। ३. नाणमेगग्गचित्तो य ठिओ ठावयई परं।
सुयाणि य अहिज्जित्ता रओ सुयसमाहिए।। (द० ६ (४) : ३)
अध्ययन के द्वारा ज्ञान होता है, चित्त की एकाग्रता होती है, मनुष्य धर्म में स्थित होता है और दूसरों को स्थिर करता है तथा अनेक प्रकार के श्रुत का अध्ययन कर श्रुत-समाधि में रत हो जाता है। ४. विविहगुणतवोरए य निच्चं भवइ निरासए निज्जरट्ठिए। तवसा धुणइ पुराणपावगं जुत्तो सया तवसमाहिए।।
(द० ६ (४) : ४) सदा विविध गुण वाले तप में रत रहने वाला मुमुक्षु पौद्गलिक प्रतिफल की इच्छा से रहित होता है। वह केवल निर्जरा का अर्थी होता है। वह तप के द्वारा पुराने कर्मों का विनाश करता है, और तप-समाधि में सदा युक्त हो जाता है। ५. जिणवयणरए अतिंतिणे पडिपुण्णाययमाययट्ठिए।
आयारसमाहिसंवुडे भवइ य दंते भावसंधए।। (द० ६ (४) ५)