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________________ १०५ १४. दृष्टान्त ६. एवं जियं सपेहाए तुलिया बालं च पंडियं। मूलियं ते पवेति माणसं जोणिति जे ।। वेमायाहिं सिक्खहिं जे नरा गिहिसुव्वया। उति माणुसं जोणिं कम्मसच्चाहु पाणिणो।। (सू० ७ : १६-२०) इस प्रकार हारे हुए को देखकर तथा बाल और पण्डित भाव को तोलकर जो मानुषी योनि में आते हैं, वे मूल के साथ प्रवेश करते हैं। __ जो नर कम-अधिक शिक्षाओं द्वारा गृहवास में भी सुव्रती हैं, वे मानवीय योनि को प्राप्त करते हैं। प्राणी के कृत्य हमेशा सत्य होते हैं। उनका फल मिलता ही है। ७. जहा कुसग्गे उदगं समुद्देण समं मिणे। एवं माणुस्सगा कामा देवकामाण अंतिए।। जेसिं तु विउला सिक्खा मूलियं ते अइच्छिया। सीलवंता सविसेसा अद्दीणा जंति देवयं ।। (सू० ७ : २३, २१) जैसे कुश के अग्रभाग पर रहा हुआ जल-बिन्दु समुद्र की तुलना में नगण्य होता है, उसी तरह मनुष्य के कामभोग देवों के कामभोगों के सामने नगण्य होते हैं। जिन जीवों की शिक्षाएँ विपुल हैं, वे मूल पूँजी को अतिक्रान्त कर जाते हैं। जो विशेष रूप से शील और सदाचार से युक्त होते हैं, वे पराक्रमी पुरुष लाभ रूप देवगति को प्राप्त करते हैं। ८. एवमद्दीणवं भिक्खं अगरिं च वियाणिया। कहण्णु जिच्चमेलिक्खं जिच्चमाणे न संविदे ?|| (उ० ७ : २२) इस प्रकार पराक्रमी भिक्षु और गृहस्थ (के गुणों) को जानकर विवेकी पुरुष ऐसे लाभ को कैसे खोयेगा? वह कषाय से पराजित होता हुआ क्या यह नहीं जानता कि 'मैं पराजित हो रहा हूँ ?' यह जानते हुए उसे परजित नहीं होना चाहिए। (३) जुआरी ६. कुजए अपराजिए जहा अक्खेहिं कुसलेहिं दीक्यं । कडमेव गहाय णो कलिं णो तेयं णो चेव दावरं।। एवं लोगम्मि ताइणा बुइए जे धम्मे अणुत्तरे। तं गिण्ह हियं ति उत्तम कडमिव सेसऽवहाय पंडिए।। (सू० १ (२) २: २३-२४) निपुण जुआरी 'कृत' नामक स्थान को ही ग्रहण करता है, 'कलि', 'द्वापर' और 'त्रेता' को नहीं और पराजित नहीं होता, वैसे ही पण्डित इस लोक में जगत्राता सर्वज्ञों ने जो उत्तम और अनुत्तर धर्म कहा है, उसे ही अपने हित के लिए ग्रहण करे। पण्डित इन्द्रिय-विषयों को छोड़ दे, जैसे कुशल जुआरी 'कृत' के सिवा अन्य स्थानों को छोड़ता है।
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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