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महावीर वाणी
मनुष्यों के कामभोग सहस्रगुण करने पर भी आयु और भोग की दृष्टि से देवताओं के कामभोग ही उनसे दिव्य होते हैं। मनुष्यों के काम देवताओ के कामों के सामने वैसे ही हैं, जैसे सहस्र मोहर के सामने काकिणी और राज्य के सामने आम। प्रज्ञावान की देवलोक में जो अनेक वर्षनयुत्त की स्थिति है उसको दुर्बुद्धि जीव सौ वर्ष से भी न्यून आयु में विषय-भोगों के वशीभूत होकर हार देता है। २. कुसग्गमेत्ता इमे कामा सन्निरुद्धंमि आउए।
कस्स हेउं पुराकाउं जोगक्खेमं न संविदे ?|| (सू०७ : २४)
इस सीमित आयु में कामभोग कुश के अग्र भाग के समान स्वल्प हैं। तुम किस हेतु को सामने रखकर आगे के योगक्षेम को नहीं समझते ?
(२) तीन वणिक ३. जहा य तिन्नि वणिया मूलं घेत्तूण निग्गया।
एगोऽत्थ लहई लाहं एगो मूलेण आगओ।। एगो मूलं पि हारित्ता आगओ तत्थ वाणिओ। ववहारे उवमा एसा एवं धम्मे वियाणह || (सू० ७ : १४-१५)
तीन वणिक मूल पूँजी को लेकर घर से निकले। उनमें से एक लाभ उठाता है, दूसरा मूल को लेकर आता है और तीसरा मूल पूँजी को भी खोकर आता है। जैसे व्यवहार में यह उपमा है, वैसे ही धर्म के विषय में भी जानो। ४. माणुसत्तं भवे मूलं लाभो देवगई भवे।
मूलच्छेएण जीवाणं नरगतिरिक्खत्तणं धुवं ।। (सू० ७ : १६)
मनुष्य जीवन मूलधन है। देवगति लाभ-स्वरूप है। मूलधन के नाश से जीवों को निश्चय ही हार स्वरूप नरक और तिर्यञ्च गति मिलती है। ५. दुहओ गई बालस्स आवई वहमूलिया।
देवत्तं माणुसत्तं च जं जिए लोलयासढे ।। तओ जिए सई होइ दुविहं दोग्गइं गए। दुल्लहा तस्स उम्मज्जा अद्धाए सुइरादवि।। (सू० ७ : १७-१८)
धूर्त और लोलुप अज्ञानी जीव की, जिसने कि देवत्व और मनुष्यत्व को हार दिया है, नरक और तिर्यञ्ज ये दो गतियाँ होती हैं, जो कष्टमूलक ओर वधमूलक हैं।
नरक और तिर्यञ्च इन दो प्रकार की दुर्गतियों में गया हुआ जीव सदा ही हारा हुआ होता है क्योंकि इन उन्मार्गों से निकलकर विशाल पथ पर आना दीर्घकाल के बाद भी दुर्लभ है।