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________________ १४. दृष्टान्त १०३ कई ऐसे हैं जो केवल कुतर्क ही किया करते हैं और दूसरे सच्चे हों तो भी उनकी पुर्युपासना नहीं करते। दुर्मति अपनी तर्क से ही सोचते रहते हैं कि उनका मार्ग ही सरल है। इस प्रकार अपने पक्ष में तर्क करते हुए तथा धर्माधर्म को नहीं जानते हुए ऐसे लोग पिंजरे में बँधते हुए पक्षी की तरह दुःख का अन्त नहीं कर सकते। ६. सयं सयं पसंसंता गरहंता परं वयं। जे उ तत्थ विउस्संति संसारं ते विउस्सिया।। (सू० १, १ (२) : २३) __ अपने-अपने मत की प्रशंसा करने में और दूसरों के मत की निन्दा करने में ही जो पांडित्य दिखाते हैं, वे संसार में बँधे रहते हैं। (३) फूटी नाव ७. जहा आसाविणि णावं जाइअंधो दुरूहिया। इच्छई पारमागंतुं अंतराले विसीयई।। एवं तु समणा एगे मिच्छदिट्ठी अणारिया। संसारपारकंखी ते संसारं अणुपरियट्टति।। _ (सू० १, १ (२) : ३१-३२) जिस तरह छेदवाली फूटी नाव में बैठकर पार जाने की इच्छा करनेवाला जन्मान्ध पुरुष पार नहीं जा सकता और बीच में ही डूबता है, इसी तरह से कई अनार्य और मिथ्या-दृष्टि श्रमण संसार से पार पाने की आकांक्षा रखते हुए भी संसार में ही गोते खाया करते हैं। ४. हार-जीत (१) काकिणी १. जहा कागिणिए हेउं सहस्सं हारए नरो। अपत्थं अम्बगं भोच्चा राया रज्जं तु हारए।। एवं माणुस्सगा कामा देवकामाण अतिए। सहस्सगुणिया भुज्जो आउं कामा य दिब्विया।। अणेगावासानउया जा सा पन्नवओ ठिई। जाणि जीयंति दुम्मेहा ऊणे वास सयाउए।। (सू० ७ : ११-१३) जैसे एक काकिणी के लिए कोई मूर्ख मनुष्य हजार मोहर को हार जाता है और जैसे अपथ्य आम को खाकर राजा राज्य खो बैठता है, उसी तरह मूर्ख तुच्छ मानवीय भोगों के लिए उत्तम सुखों-देव-सुखों को खो देता है।
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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