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________________ महावीर वाणी जिस तरह हिताहित के विवेक से शून्य मृग, विषमान्त में पहुँच, पद-बन्धन के द्वारा बद्ध होकर वहीं मर जाता है और इस तरह अपना बड़े-से-बड़ा अहित करता है, उसी तरह से विवेक शून्य अज्ञानी मूढ़ धर्म-स्थान में शंका करते हैं और आरम्भ में शंका नहीं करते। लोभ, मान, माया और क्रोध को छोड़ मनुष्य कार्मांश रहित - मुक्त होता है, पर अज्ञानी मनुष्य मूर्ख मृग की तरह इस बात को छोड़ देता है। जो बन्धनमुक्ति के उपाय को नहीं जानते वे मिथ्यादृष्टि अनार्य उसी तरह अनन्त बार घात को प्राप्त करते हैं, जिस तरह वह पाशबद्ध मृग । १०२ ३. अमणुण्णसमुप्पायं दुक्खमेव विजाणिया । समुप्पायमजाणंता किह णाहिंति संवरं ।। ( सू० १,१ (३) : १०) दुःख की उत्पत्ति होती है। जो लोग दुःख की उत्पत्ति संवर- दुःख नाश के उपाय को कैसे जान सकते हैं ? अशुभ अनुष्ठान करने से का कारण नहीं जानते हैं, वे (२) अंधानुसरण ४. वणे मूढे जहा जंतू मूइणेयाणुगामिए । दो वि एए अकोविया तिव्वं सोयं णियच्छई || अंधो अंध पहं णेंतो दूरमद्धाण गच्छई । आवज्जे उप्पहं जंतू अदुवा पंथाणुगामिए । । एवमेगे णियागट्ठी धम्ममाराहगा वयं । अदुआ अहम्ममावज्जेण ते सव्वज्जुयं वए || (सू० १,१ (२) : १८-२० ) जैसे वन में भूला हुआ कोई दिग्मूढ़ जीव दूसरे दिग्मूढ़ जीव का अनुसरण कर ठीक रास्ते पर नहीं आता और रास्ते को नहीं जानने से दोनों ही तीव्र शोक को प्राप्त होते हैं। जैसे एक अन्धा दूसरे अन्धे को मार्ग दिखाता हुआ दूर निकल जाता है या उत्पथ में चला जाता है या उल्टे पथ पर चला जाता है, उसी तरह से कई मुक्ति की कामना रखने वाले समझते हैं कि हम धर्म की आराधना कर रहे हैं परन्तु मिथ्या धर्म पर चलने से सर्वथा ऋजु मार्ग को नहीं पाते। ५. एवमेगे वियक्काहिं णो अण्णं पज्जुवासिया । अप्पणो य वियक्काहिं अयमंजू हि दुम्मई ।। एवं तक्काए साहेंता धम्माधम्मे अकोविया । दुक्खं ते णातिवति सउणि पंजरं जहा ।। ( सू० १, १ (२) : २१-२२)
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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