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१४. दृष्टान्त ६. रमए पण्डिए सासं हयं भदं व वाहए।
बालं सम्मइ सासंतो गलियस्सं व वाहए।। (उ० १ : ३७)
पण्डितों को शासन करता हुआ गुरु उसी प्रकार आनन्दित होता है, जिस प्रकार भद्र घोडे का शासन करनेवाला वाहक । मूर्ख शिष्यों को शिक्षा करता हुआ गुरु उसी प्रकार कष्ट पाता है, जिस प्रकार गलि-अश्व का वाहक।
३. दिग्मूढ़
(१) मृग १. जविणो मिगा जहा संता परिताणेण तज्जिया।
असंकियाइं संकंति, संकियाइं असंकिणो।। परिताणियाणि संकेता पासियाणि असंकिणो। अण्णाणभयसंविग्गा संपलिंति तहिं तहिं।। अह तं पवेज्ज वज्झं अहे वज्झस्स वा वए। मुच्चेज्ज पययासाओ तं तु मंदोण देहई।।
(सू० १, १(२) : ६-८) जैसे सुरक्षित स्थान से भटके हुए चंचल मृग, शंका के स्थान में शंका नहीं करते और अशंका के स्थान में शंका करते हैं और इस तरह सुरक्षित स्थान में शंका करते हुए और पाशस्थान में शंका न करते हुए वे अज्ञानी और भय-संत्रस्त जीव उन-उन पाशयुक्त स्थानों में फंस जाते हैं। यदि मृग उस बन्धन को फाँदकर चले आएँ या उसके नीचे से निकल जाएँ तो पैर के बनधन से मुक्त हो सकते हैं। पर वे मूर्ख यह नहीं देखते। २. अहियप्पाऽहियप्पण्णाणे विसमंतेणुवागए।
से बद्धे पयपासाई तत्थ धायं णियच्छइ।। धम्मपण्णवणा जा सा तं तु संकति मूढगा। आरंभाई ण संकति अवियत्ता अकोविया ।। सव्वप्पगं विउक्कस्सं सव्वं णूमं विहूणिया। अप्पत्तियं अकम्मंसे एयमलै मिगे चुए।। जे एयं णाभिजाणंति मिच्छदिट्ठी अणारिया। मिगा वा पासबद्धा ते घायमेसंतऽणंतसो।।
(सू० १, १(२) : ६, ११-१३)