________________
१००
३. एगं डसइ पुच्छंमि एगं विंधइऽभिक्खणं । एगो भंजइ समिलं एगो उप्पहपट्ठिओ ।।
( उ० २७ : ४)
वह एक की पूँछ को काट देता है और दूसरे को बार-बार आरे से बधता है। (तो भी) एक जुए को तोड़ डालता है, तो दूसरा उन्मार्ग की ओर दौड़ने लगता है। ४. एगो पडइ पासेणं निवेसइ निवज्जई |
उक्कुद्दइ उप्फिडई सढे बालगवी वए । ।
महावीर वाणी
(उ० २७ : ५)
एक एक पार्श्व से जमीन पर गिर पड़ता है, बैठ जाता है, सो जाता है तो दूसरा शठ कूदता है, उछलता है और तरुण गाय के पीछे दौड़ता है।
५. माई मुद्धेण पडइ कुद्धे गच्छइ पडिप्पहं । मयलक्खेण चिट्ठई वेगेण य पहावई । ।
( उ० २७ : ६)
एक वृषभ माया कर मस्तक से गिर पड़ता है, तो दूसरा क्रोध युक्त होकर उल्टा चलता है। एक मृतक की तरह पड़ जाता है तो दूसरा जोर से
दौड़ने लगता है।
६. छिन्नालें छिंदइ सेल्लि दुद्दतो भंजए जुगं ।
सेवि य सुस्सुयाइत्ता उज्जहित्ता पलायए ।।
( उ० २७ : ७)
छिन्नाल वृषभ रास का छेदन कर देता है, दुर्दान्त जुए को तोड़ डालता है और सों-सों कर वाहन को छोड़कर भाग जाता है।
७. खलुंका जारिसा जोज्जा दुस्सीसा वि हु तारिसा ।
जोइया धम्मजाणम्मि भज्जति धिइदुब्बला । । ( उ०२७ : ८)
यान में दुष्ट वृषभों को जोतने पर जो हाल होता है, वही हाल धर्म- यान में दुःशिष्यों को जोड़ने से होता है।' दुर्बल धृति वाले शिष्य, जैसे दुष्ट वृषभ यान को तोड़ डालता है, उसी तरह धर्म- यान को भग्न कर डालते हैं।
८. अह सारही विचिंतेइ खलुंकेहिं समागओ । किं मज्झ दुट्ठसीसेहिं अप्पा मे अवसीयई । । जारिसा मम सीसाउ तारिसा गलिगद्दहा । गलिग चइत्ताणं दढं परिगिण्हइ तवं । । उन दुष्ट वृषभों द्वारा श्रम को प्राप्त हुआ सारथी जैसे वृषभों से मुझे क्या प्रयोजन जिनके संसर्ग से मेरी आत्मा विषाद को प्राप्त होती है, उसी तरह धर्माचार्य सोचते हैं- जैसे ये मेरे दुर्बल दुष्ट शिष्य हैं वैसे ही गली - गर्दभ होते हैं इनको छोड़कर मैं तप को ग्रहण करता हूँ ।
( उ० २७ : १५-१६ ) सोचता है कि इन दुष्ट
१. इस उपमा के विस्तार के लिए दिखिये - उ० २७ : ६-१४ ।