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________________ १४. दृष्टान्त विषयों में गृद्ध है, जो महारम्भी और महापरिग्रही है, जो सुरा और मांस का खान-पान करनेवाला है, बलवान होकर दूसरे को दमन करनेवाला है और जो बकरे की तरह कर्क शब्छ करते हुए मांस को खानेवाला है - ऐसा बड़े पेट और उपचित रक्तवाला मूर्ख ठीक तरह नरकायु की आकांक्षा करता है, जिस तरह पोसा हुआ एलक अतिथि की । ३. आसणं सयणं जाणं वित्तं कामे य भुंजिया । दुस्साहडं धणं हिच्चा बहुं संचिणिया रयं । । तओ कम्मगुरू जन्तू पच्चुप्पनपरायणे । व्व आगयाएसे मरणंतंमि सोयई । । तओ आउपरिक्खीणे चुया देहा विहिंसंगा | आसुरियं दिसं बाला गच्छंति अवसा तमं । । अय ( उ० ७ : ८-१० ) आसन, शय्या, यान, वित्त और कामभोगों को भोगकर मूर्ख बहुत कर्म-रज को संचित कर कर्मगुरु - कर्मों से भारी बन जाता है। ऐसा कर्मगुरु - कर्मों से भारी बना हुआ और केवल वर्तमान को ही देखनेवाला प्राणी कष्ट से प्राप्त धन को यहीं छोड़कर जाता हुआ मरणान्त काल में उसी प्रकार सोच करता है, जिस तरह पुष्ट एलक अतिथि के आने पर । (अतिथि के पहुँचने पर जैसे एलक शिर से छेदा जाकर खाया जाता है) उसी तरह आयुष्य के क्षीण होने पर नाना प्रकार की हिंसा करनेवाले मूर्ख, देह को छोड़ परवश बन, अन्धकारयुक्त नरक गति की ओर जाते हैं। २. गली - गर्दभ १. वहणे वहमाणस्स कंतारं अइवत्तई ।' जोए वहमाणस संसारो अइवत्तई ।। ६६ (उ० २७ : २) वाहन में जोड़े हुए विनीत वृषभ आदि को चलाता हुआ पुरुष अरण्य को सुखपूर्वक पार करता है, उसी तरह योग - यान ( संयम-रथ) में जोड़े हुए सुशिष्यों को चलाता हुआ आचार्य इस संसार को सुखपूर्वक पार करता है । २. खलुंके जो उ जोएइ विहम्माणो किलिस्सई । असमाहिं च वेएइ तोत्तओ य से भज्जई ।। (उ० २७ : ३) जो वाहन में दुष्ट वृषभों को जोतता है, वह उनको मारते-मारते क्लेश को प्राप्त होता है। वह असमाधि का अनुभव करता है। उसका तोत्रक (आर) तक टूट जाता है।
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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