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दृष्टान्त
१. एलक
१. जहाएसं समुद्दिस्स कोइ पोसेज्ज एलयं ।
ओयणं जवसं देज्जा पोसेज्जा वि सयंगणे । । तओ से पुट्ठे परिवूढे जायमेए महोदरे । पीणिए विउले देहे आएसं परिकंखए । । जाव न एइ आएसे ताव जीवइ से दुही। अह पत्तंमि आएसे सीसं छेत्तूण भुज्जई ।। जहा खलु से उरब्भे आएसाए समीहिए। एवं बाले अहम्मिट्ठे ईहई नरयाउयं । ।
( उ० ७ : १-४)
जैसे कोई अतिथि के उद्देश्य से एलक (मेमने) का पोषण करता है, उसे चावल और जौ खिलाता है, अपने आँगन में ही उसे रखता और उसका पालन करता है और जैसे इस तरह पोसा हुआ वह एलक पुष्ट, परिवृद्ध, जातमेद, महाउदर और तृप्त तथा विपुल देहवाला होने पर अतिथि की प्रतीक्षामात्र के लिए होता है ।
इस तरह जैसे वह एलक निश्चय रूप में अतिथि के लिए ही पोसा जाता है - जब तक अतिथि नहीं आता, तब तक ही बेचारा जीता है और अतिथि के आने पर उसका सिर छेद कर खा लिया जाता है, उसी प्रकार अधर्मिष्ठ दुराचारी मूर्ख मनुष्य मानो कम की अपेक्षा नरकायु के लिए पुष्ट होता है और उसकी इच्छा करता है ।
२. हिंसे वाले मुसावाई अद्धामि विलोव । अन्नदत्तहरे तेणे माई कण्हुहरे सढे । । इत्थीविसयगिद्धे य महारंभपरिग्गहे । भुंजमाणे सुरं मंसं परिवृढे परंदमे ।। अयकक्करभोई य तुंदिल्ले चियलोहिए। आउयं नरए कंखे जहाएस व एलए । ।
(उ० ७ : ५-७)
जो मूर्ख है, हिंसक है, झूठ बोलनेवाला है, मार्ग में लूटनेवाला है, ग्रंथिच्छेदक
है, चोर है, मायी है ओर किसको हरण करुँ - ऐसे विचारवाला शठ है, जो स्त्री और