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________________ १३. दुःख-हेतु ६. अदंसणं चेव अपत्थणं च अचिंतणं चेव अकित्तणं च। इत्थीजणस्सारियझाणजोग्गं हियं सया बम्भवए रयाणं।। (उ० ३२ : १५) स्त्रियों के रूप, लावण्य, विलास, हास्य, मंजुल भाषण, अंग-विन्यास और कटाक्ष आदि को न देखना चाहिए। उनकी इच्छा. नहीं करनी चाहिए, उनका मन में चिन्तन नहीं करना चाहिए, उनका कीर्तन नहीं करना चाहिए। ब्रह्मचर्य में रत पुरुष के लिए ये नियम सदा हितकारी और आर्य ध्यान (उत्तम समाधि) प्राप्त करने में सहायक हैं। ७. मोक्खाभिकंखिस्स वि माणवस्स संसारभीरुस्स ठियस्स धम्मे। नेयारिसं दुत्तरमत्थि लोए जहित्थिओ. बालमणोहराओ।। (उ० ३२ : १७) जो पुरुष मोक्षाभिलाषी है, संसार-भीरु है, धर्म में स्थित है, उसके लिए मूर्ख के मन को हरनेवाली स्त्रियों की आसक्ति को पार पाने से अधिक दुष्कर कार्य इस लोक में दूसरा नहीं है। ८. एए य संगे समइक्कमित्ता सुहुत्तरा चेव भवन्ति सेसा। जहा महासागरमुत्तरित्ता नई भवे अवि गंगासमाणा।। (उ० ३२ : १८) इस आसक्ति का पार पा लेने पर शेष आसक्तियों का पार पाना उसी प्राकर सरल हो जाता है जिस प्रकार महासागर तैर लेने पर गंगा के समान नदियों को तैरना। ६. कामाणुगिद्धिप्पभवं खु दुक्खं सव्वस्स लोगस्स सदेवगस्स। जं काइयं माणसियं च किंचि तस्सऽन्तगं गच्छइ वीयरागो।। (उ० ३२ : १६) देवों सहित सर्व लोक में जो सब कायिक और मानसिक दुःख हैं, वे सब कामभोगों की आसक्ति से ही उत्पन्न हैं। वीतराग पुरुष ही उन सबका अंत ला सकता है। १०. जहा य किंपागफला मणोरमा रसेण वण्णेण य भुज्जमाणा। ते खुड्डए जीविय पच्चमाणा एओवमा कामगुणा विवागे।। __(उ० ३२ : २०) जिस तरह किम्पाक फल खाते समय रस और वर्ण में मनोरम होने पर भी पचने पर जीवन का अंत करते हैं, उसी तरह से भोगने में मनोहर काम-भोग विपाक-काल (फल देने की अवस्था) में विनाश के (अधोगति) के कारण होते हैं।
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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