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१३. दुःख-हेतु
३. संसार-परम्परा : मोक्ष-साधना
१. जहा य अण्डप्पभवा बलागा अण्डं बलागप्पभवं जहा य। एमेव मोहाययणं खु तण्हं मोहं च तण्हाययणं वयंति।।
(उ० ३२ : ६) जैसे बलाका अंडे से उत्पन्न होती है और अंडा बलाका से उत्पन्न होता है, उसी प्रकार तृष्णा का उत्पत्ति-स्थान मोह है और मोह का उत्पत्ति-स्थान तृष्णा कही गयी है। २. रागो य दोसो वि य कम्मबीयं कम्मं च मोहप्पभवं वयंति। कम्म च जाईमरणस्स मूल दुक्खं च जाईमरणं वयंति।।
(उ० ३२ : ७) राग और द्वेष-ये दोनों कर्मों के बीज हैं। कर्म मोह से उत्पन्न कहा गया है। कर्म जन्म और मरण का मूल है और जन्म-मरण को दुःख का मूल कहा गया है। ३. दुक्खं हयं जस्स न होइ मोहो मोहो हओ जस्स न होइ तण्हा। तण्हा हया जस्स न होइ लोहो लोहो हओ जस्स न किंचणाई।।
(उ० ३२ : ८) उसका दुःख नष्ट हो गया, जिसके मोह नहीं होता। उसका मोह नष्ट हो गया, जिसके तृष्णा नहीं होती। उसकी तृष्णा नष्ट हो गई जिसके लोभ नहीं होता। उसका लोभ नष्ट हो गया, जो अकिंचन है। ४. नाणस्स सव्वस्स पगासणाए अन्नाणमोहस्स विवज्जणाए। रागस्स दोसस्स य संखएणं एगंतसोक्खं समुवेइ मोक्खं ।।
(उ० ३२ : २) सम्पूर्ण ज्ञान के प्रकाश से, अज्ञान और मोह के विवर्जन से तथा राग और द्वेष के सम्पूर्ण क्षय से जीव एकान्त सुखमय मोक्ष को प्राप्त होता है। ५. तस्सेस मग्गो गुरुविद्धसेवा, विवज्जणा बालजणस्स दूरा। सज्झायएगंतनिसेवणा य सुत्तत्थसंचिंतणया धिई य।।
(उ० ३२ : ३) गुरु और वृद्ध संतों की सेवा, अज्ञानी जनों (के संग) का दूर से ही वर्जन, एकाग्र चित्त से स्वाध्याय, एकान्तवास, सूत्र और अर्थ का भली प्रकार चिन्तन तथा धृति-यह ही एकान्तिक सुखमय मोक्ष को प्राप्त करने का मार्ग है।