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________________ ६४ महावीर वाणी १४. फासेसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं अकालियं पावइ से विणासं। रागाउरे सीयजलावसन्ने गाहग्गहीए महिसे व ऽरन्ने ।। (उ० ३२ : ७६) जिस तरह जंगल के शीतल जलाशय में निमग्न रागातुर महिष ग्राह द्वारा पकड़ा जाकर विनाश को प्राप्त होता है, उसी तरह स्पर्श के विषय में तीव्र गृद्धि को प्राप्त मनुष्य अकाल में ही विनाश को प्राप्त करता है। १५. एभेव फासम्मि गओ पओसं उवेइ दुक्खोहपरंपराओ। पदुट्ठचित्तो व चिणाइ कम्मं जं से पुणो होइ दुहं विवागे।।। (उ० ३२ : ८५) इसी तरह शब्द के विषय में द्वेष को प्राप्त हुआ जीव दुःख-समूह की परम्परा को प्राप्त करता है। द्वेषमय चित्त द्वारा वह कर्मों का संचय करता है, जिससे विपाककाल में उसे पुनः बड़ा दुःख होता है। १६. भावस्स मणं गहणं वयंति मणस्स भावं गहणं वयंति। ___रागस्स हेउं समणुन्नमाहु दोसस्स हेउं अमणुन्नमाहु ।। (उ० ३२ : ८८) जो भाव को ग्रहण करता है, उसे मन कहते हैं। मन का ग्राह्य विषय भाव कहा जाता है। जो भाव राग का हेतु होता है, वह मनोज्ञ कहा जाता है। जो भाव द्वेष का हेतु होता है, वह अमनोज्ञ कहा जाता है। १७. भावेसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं अकालियं पावइ से विणासं। रागाउरे कामगुणेसु गिद्धे करेणुमग्गावहिए व नागे।। (उ० ३२ : ८६) जिस तरह कामभाव में गृद्ध और रागातुर हाथी हथिनी के द्वारा मार्ग-भ्रष्ट होकर मारा जाता है, उसी तरह भाव के विषय में तीव्र गृद्धि प्राप्त मनुष्य अकाल में ही विनाश को प्राप्त होता है। १८. एमेव भावम्मि गओ पओसं उवेइ दुक्खोहपरंपराओ। पदुट्ठचित्तो य चिणाइ कम्मं जं से पुणो होइ दुहं विवागे।। (उ० ३२ : ६८) इसी तरह भाव के विषय मे द्वेष को प्राप्त हुआ जीव दुःख-समूह की परम्परा को प्राप्त होता है। प्रदुष्ट चित्त द्वारा वह कर्मों का संचय करता है, जिससे उसे विपाक-काल में पुनः बड़ा दुःख होता है।
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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