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________________ १३. दुःख-हेतु ६. एमेव गंधम्मि गओ पओसं उवेइ दक्खोहपरंपराओ। पदुट्ठचित्तो य चित्ताइ कम्मं जं से पुणी होइ दुई विवागे।। (उ० ३२ : ५६) इसी तरह गंध के विषय में द्वेष को प्राप्त हुआ जीव दुःख-समूह की परम्परा को प्राप्त होता है। द्वेषमय चित्त द्वारा वह कर्मों का संचय करता है, जिससे उसे विपाक-काल में पुनः बड़ा दुःख होता है। १०. रसस्स जिब्भं गहणं वयंति जिब्भाए रसं गहणं वयंति। रागस्स हेउं समणुन्नमाहु दोसस्स हेउं अमणुन्नमाहु।। (उ० ३२ : ६२) जो रस को ग्रहण करती है, उसे जिहा का ग्राह्य विषय रस कहा गया है। जो रस राग का हेतु होता है, उसे मनोज्ञ कहा जाता है और जो रस द्वेष का हेतु होता है, उसे अमनोज्ञ कहा जाता है। ११. रसेसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं अकालियं पावइ से विणासं। रागउरे बडिसविभिन्नकाए मच्छे जहा आमिसभोगगिद्धे ।। (उ० ३२ : ६३) जिस तरह रागातुर मच्छ आमिष खाने की गृद्धि के वश काँटे से बिंधा जाकर मरण को प्राप्त होता है, उसी तरह जो मनुष्य रस में तीव्र गृद्धि को प्राप्त होता है, वह अकाल में ही विनाश को प्राप्त करता है। १२. एमेव रसम्मि गओ पओसं उवेइ दुक्खोहपरंपराओ। पदुट्ठचित्तो य चिणाइ कम्मं जं से पुणो होइ दुहं विवागे।। (उ० ३२ : ७२) _इसी तरह शब्द के विषय में द्वेष को प्राप्त हुआ जीव दुःख-समूह की परम्पराओं को प्राप्त होता है। द्वेषमय चित्त द्वारा वह कर्मों का संचय करता है, जिससे विपाक-काल में उसे पुनः दुःख होता है। १३. फासस्स कायं गहणं वयंति कायस्स फासं गहणं वयंति। रागस्स हेउं समणुन्नमाहु दोसस्स हेउं अमणुन्नमाहु ।। (उ० ३२ : ७५) जो स्पर्श को ग्रहण करता है, उसे काय कहते हैं। जो काय का ग्राह्य विषय है, उसे स्पर्श कहा है। जो स्पर्श राग का हेतु होता है, वह मनोज्ञ कहा जाता है। जो स्पर्श द्वेष का हेतु होता है, वह अमनोज्ञ कहा जाता है।
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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