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महावीर वाणी
४. रूवस्स चक्खं गहणं वयंति चक्खुस्स रूवं गहणं वयंति। रागस्स हेउं समणुन्नमाहु दोसस्स हेउं अमणुन्नमाहु।।
(उ० ३२ : २३) जो रूप को ग्रहण करता है, उसे चक्षु कहा गया है। चक्षु के ग्राह्य विषय को रूप कहा गया है। जो रूप राग का हेतु होता है, उसे मनोज्ञ कहा जाता है। जो रूप द्वेष का हेतु होता है, उसे अमनोज्ञ कहा जाता है। ५. रूवेसु जो गिद्धिमवेइ तिवं अकालियं पावइ से विणासं। रागाउरे से जह वा पयंगे आलोयलोले समुवेइ मच्चु ।।
(उ० ३२ : २४) जिस तरह रागातुर पतंग आलोक में मोहित हो अतृप्त अवस्थ में मृत्यु को प्राप्त होता है, उसी तरह जो रूप में तीव्र गृद्धि को प्राप्त होता है, वह मनुष्य अकाल में ही विनाश को प्राप्त होता है। ६. एमेव रूवम्मि गओ पओसं उवेइ दुक्खोहपरंपराओ। पदुद्दचित्तो य चिणाइ कम्मं जं से पुणो होइ दुहं विवागे।।
(उ० ३२ : ३३) इसी तरह रूप के विषय में द्वेष को प्राप्त हुआ जीव दुःख-समूह की परम्परा को प्राप्त होता है। द्वेषमय चित्त द्वारा वह कर्मों का संचय करता है, जिससे उसे विपाककाल में पुनः दुःख होता है। ७. गंधस्स घाणं गहणं वयंति घाणस्स गंधं गहणं वयंति।। रागस्स हेउं समणुन्नमाहु दोसस्स हेउं अमणुन्नमाहु।।
(उ० ३२ :४६) जो गन्ध को ग्रहण करता है, उसे घ्राण (नाक) कहते हैं। जो नाक का ग्राह्य विषय है, उसे गन्ध कहते हैं। जो गन्ध राग का हेतु होता है, उसे मनोज्ञ कहा जाता है। जो गंध द्वेष का हेतु होता है, उसे अमनोज्ञ कहा जाता है। ८. गंधेसु जो गिद्धिमुवेइ तिवं अकालियं पावइ से विणासं। रागाउरे ओसहिगंधगिद्धे सप्पे विलाओ विव निक्खमंते।।
(उ० ३२ : ५०) जिस तरह रागातुर सर्प औषधि की गंध में गृद्ध हो बिल से निकलता हुआ विनाश को प्राप्त होता है, उसी तरह गंध में तीव्र गृद्धि को प्राप्त मनुष्य अकाल में ही विनाश को प्राप्त करता है।