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________________ १३. दुःख - हेतु ५. मोसस्स पच्छा य पुरत्थओ य पओगकाले यदुही दुरंते । एवं अदत्ताणि समाययंतो सद्दे अतित्तो दुहिओ अणिस्सो । । ( उ० ३२ : ४४) मृषावाद के पहले और पीछे तथा मृषावाद करते समय वह दुरंत दुष्ट कर्म करने वाला पुरुष अवश्य दुःखी होता है। चोरी में प्रवृत्त और शब्दादि में अतृप्त हुई आत्मा दुःख को प्राप्त होती है तथा उसका कोई सहायक नहीं होता । ६. सद्दाणुरत्तस्स नरस्स एवं कत्तो सुहं होज्ज कयाइ किंचि ? तत्थोवभोगे वि किलेसदुक्खं निव्वत्तई जस्स कएण दुक्खं ।। (उ० ३२ : ४५) ६१ शब्दादि विषयों में अनुरक्त पुरुष को इस परिस्थिति में कदाचित् किंचित् भी सुख कैसे हो सकता है ? जिनको प्राप्त करने के लिए दुःख उठाया उन्हीं शब्दादि विषयों के उपभोगकाल में भी वह क्लेश और दुःख को ही प्राप्त होता है । २. विषय और विनाश १. सद्दस्स सोयं गहणं वयंति सोयस्स सद्दं गहणं वयंति । रागस्स हेउं समणुन्नमाहु दोसस्स हेउं अमणुन्नमाहु ।। ( उ० ३२ : ३६) जो शब्द को ग्रहण करता है, उसे श्रोत्र (कान) कहा गया है। जो श्रोत्र का ग्रहण (विषय) है, उसे शब्द कहा गया है। जो शब्द राग का हेतु होता है, उसे मनोज्ञ कहते हैं। जो शब्द द्वेष का हेतु होता है, उसे अमनोज्ञ कहते हैं । २. सद्देसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं अकालियं पावइ से विणासं । रागाउरे हरिणमिगे व मुद्धे सद्दे अतित्ते सुमुवेइ मच्चुं । । ( उ० ३२ : ३७) जिस तरह शब्द में मुग्ध बना रागातुर हिरण अतृप्त ही मृत्यु का ग्रास बनता है, उसी तरह शब्द के विषय में तीव्र गृद्धि रखनेवाला पुरुष अकाल में ही विनाश को प्राप्त होता है । ३. एमेव सद्दम्मि गओ पओसं उवेइ दुक्खोहपरंपराओ । पट्ठचित्तो य चिणाइ कम्मं जं से पुणो होइ दुहं विवागे ।। (उ० ३२ : ४६ ) इसी तरह शब्द के विषय में द्वेष को प्राप्त हुआ जीव दुःख समूह की परम्परा को प्राप्त होता है । द्वेषमय चित्त द्वारा वह कर्मों का संचय करता है, जिससे उसे विपाककाल में पुनः दुःख होता है ।
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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