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': १३ : दुःख-हेतु
१. तृष्णा और दुःख १. सद्दाणुगासाणुयए य जीवे चराचरे हिंसइ ऽणेगरूवे । चित्तहि ते परियावेइ बाले पीलेइ अत्तगुरू किलिट्ठे ।।
(उ० ३२ : ४०) शब्द, रूप, गंध, रस, स्पर्श और भाव की तृष्णा से उनके पीछे चलनेवाला अज्ञानी जीव अपने स्वार्थ को प्रधान कर नाना प्रकार के त्रस और स्थावर जीवों की हिंसा करता हैं। वह क्लिष्ट जीव उन्हें कई प्रकार से परिताप देता और पीड़ा पहुँचाता है। २. सद्दाणुवाएण परिग्गहेण उप्पायणे रक्खणसन्निओगे। वए वियोगे य कहिं सुहं से संभोगकाले य अतित्तिलामे ? ||
(उ० ३२ : ४१) शब्द, रूप, गंध, रस, स्पर्श और भावों के प्रति अनुराग और मूर्छा के कारण उनके उत्पादन, रक्षण और प्रबंध में (क्लेश और चिंता होती है)। विनाश और वियोग में (शोक होता है)। संभोग-काल में भी तृप्ति-लाभ न होने से (खेद होता है)। ऐसी स्थिति में मनुष्य को विषयों में सुख कहाँ से हो सकता है। ३. सद्दे अतित्ते य परिग्गहे य सत्तोवसत्तो न उवेइ तुढिं। अतुट्ठिदोसेण दुही परस्स लोभाविले आययई अदत्तं ।।
(उ० ३२ : ४२) शब्दादि विषयों में अतृप्त और परिग्रह में आसक्त जीव कभी संतोष को प्राप्त नहीं होता है। इस असंतोष-दोष के कारण दुःखी हो लोभवश दूसरों की चीजों को बिना दिए लेने लगता है (चोरी करने लगता है)। ४. तण्हाभिभूयस्स अदत्तहारिणो सद्दे अतित्तस्स परिग्गहे य। मायामुसं वड्ढइ लोभदोसा तत्थावि दुक्खा न विमुच्चई से।।
(उ० ३२ : ४३) तृष्णा से अविभूत, चौर्य-कर्म में प्रवृत्त और शब्दादि विषयों और परिग्रह में अतृप्त पुरुष लोभ के दोष से माया और मृषा की वृद्धि करता है, तथापि वह दुःख से मुक्त नहीं हो पाता।