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जैन संस्कृत महाकाव्य
से मांसल बनाकर बारह सर्गों का रूप दे दिया है । यह विस्तार महाकाव्य की कलेवर-पूर्ति के लिये भले ही उपयुक्त हो, इससे कथाप्रवाह की सहजता नष्ट हो गयी है । समूचा काव्य सूर्यपुर, प्रभात, जन्माभिषेक, मेरु, षड्ऋतु, पौर नारियों की चेष्टाओं, प्रतीकात्मक युद्ध, वन आदि की लम्बी श्रृंखला है। इन सेतुओं से टकराती हुई कथावस्तु की धारा रुक-रुक कर मन्द गति से आगे बढ़ती है। कथानक की गत्यात्मकता का अनुमान इसी से किया जा सकता है कि तृतीय सर्ग में हुए पुत्र-जन्म की सूचना समुद्रविजय को, सातवें सर्ग में मिलती है। मध्यवर्ती तीन सर्ग शिशु के सूतिकर्म, स्नात्रोत्सव आदि के वर्णनों पर खपा दिए गए हैं। तुलनात्मक दृष्टि से यहां यह जानना रोचक होगा कि रघुवंश में, द्वितीय सर्ग में जन्म लेकर रघु, चतुर्थ सर्ग में, दिग्विजय से लौट भी आता है । काव्य के अधिकांश का मूल कथावस्तु के साथ सूक्ष्म सम्बन्ध है । इसलिए काव्य का कथानक लंगड़ाता हुआ ही चलता है । किन्तु यह स्मरणीय है कि तत्कालीन महाकाव्य-परिपाटी ही ऐसी थी कि मूलकथा के सफल विनियोग की अपेक्षा विषयान्तरों को पल्लवित करने में ही काव्यकला की सार्थकता मानी जाती थी । अतः कीतिराज को इसका सारा दोष देना न्याय्य नहीं। वस्तुतः, उन्होंने इन वर्णनों को अपनी बहुश्रुतता का क्रीडांगन न बनाकर तत्कालीन काव्यरूढि के लौहपाश से बचने का श्लाघ्य प्रयत्न किया है । नेमिनाथमहाकाव्य के आधारस्रोत
नेमिचरित का आधारभूत प्राचीनतम आप्त ग्रन्थ उत्तराध्ययनमूत्र' है । इसमें निरूपित नेमिचरित में रथनेमि तथा राजीमती के प्रसंग की प्रधानता है जिससे नेमिनाथ के जीवन की कतिपय प्रमुख रेखाएँ ही प्रस्फुटित हो सकी हैं । उत्तराध्ययन के अतिरिक्त जैन साहित्य में नेमिप्रभु के जीवनवृत्त के तीन मुख्य स्रोत हैं-जिनसेन प्रथम का हरिवंश पुराण (७८३ ई०), गुणभद्र का उत्तरपुराण (८६७ ई०) तथा हेमचन्द्र का त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (बारहवीं शताब्दी) । इन उपजीव्य ग्रन्थों में नेमिचरित की प्रमुख रेखाओं के आधार पर, भिन्न-भिन्न शैली में, उनके जीवनचित्र का निर्माण किया गया है । हरिवंश में यह प्रकरण बहुत विस्तृत है। जिनसेन ने नौ विशाल सर्गों में जितेन्द्र के सम्पूर्ण चरित का मनोयोगपूर्वक निरूपण किया है। कवि की धीर-गम्भीर शैली, अलंकृत एवं प्रौढ़ भाषा तथा समर्थ कल्पना के कारण यह पौराणिक प्रसंग महाकाव्य का आभास देता है और उसकी भाँति तीव्र रसवत्ता का आस्वादन कराता है । उत्तरपुराण में नेमिचरित का सरसरा-सा वर्णन है । जिस प्रकार गुणभद्र ने उसका प्रतिपादन किया है, उससे नेमिनाथ का विवाह और प्रव्रज्या, ४. उत्तराध्ययनसूत्र, जैन श्वेताम्बर तेरापंथी महासभा, कलकत्ता, १९६७,
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