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जैन संस्कृत महाकाव्य
हैं कि अब वर्णाश्रम व्यवस्था का कौन पालन करेगा ? धर्म
जैन धर्म का अनुयायी होता हुआ भी काव्यमण्डन का लेखक साम्प्रदायिक कदाग्रह तथा संकीर्णता से मुक्त समन्वयवादी व्यक्ति था । काव्य में भागवत धर्म तथा शैव मत का मनोयोगपूर्वक प्रतिपादन किया गया है । कथानक के परोक्ष सूत्रधार कृष्ण वासुदेव के स्वरूप का वर्णन तो अप्रत्याशित नहीं था किन्तु जिस तन्मयता, निष्ठा तथा श्रद्धा से कवि ने भगवान् शंकर की विस्तृत स्तुति की है, वह शैव धर्म के प्रति उसके निश्चित पक्षपात की परिचायक है। पाण्डवों की तीर्थयात्रा के सन्दर्भ में पुराण-प्रसिद्ध नदियों तथा भगवान् शिव का पौराणिक शैली किन्तु अलंकत भाषा में वर्णन एक ओर मण्डन की धार्मिक उदारता को व्यक्त करता है और दूसरी ओर उसे प्राचीन स्तोत्रकारों की पंक्ति में प्रतिष्ठित करता है।
भागवत मत के अनुरूप श्रीकृष्ण को मित्रों के रक्षक तथा भक्तवत्सल के रूप में चित्रित किया गया है। वे पाण्डवों के अभिन्न मित्र, पथप्रदर्शक तथा सहायक हैं। कृष्ण दीनो तथा अनाथों के उद्धारक हैं । वे नियमित रूप से अपने भक्तों की हर विपत्ति का निवारण करते हैं । वास्तव में उनके भक्तों का कोई बाल भी बांका नहीं कर सकता। । वासुदेव भूत, वर्तमान तथा भविष्य, तीनों कालों के ज्ञाता हैं।४८ उनकी भक्ति से निर्विघ्न सिद्धि प्राप्त होती है। वे वस्तुत: 'भगवान्' हैं ।५° उनकी मैत्री में छोटे-बड़े का विवेक नहीं है । उसमें भक्त और भगवान् एक हैं । इस तादात्म्य के कारण ही वे पांडवों से मिलने के लिये उनके आवास पर जाते हैं।
वासुदेव के भागवत धर्म-सम्मत रूप के अतिरिक्त काव्यकार ने उनके स्वरूप का उपनिषदों की विरोधाभासात्मक शैली में भी वर्णन किया है । उसके अनुसार वे आदि देव तथा अजर-अमर हैं । वे सगुण भी हैं, निर्गुण भी। एक होते हुए भी उनके नाना रूप हैं, वे महान् भी हैं, सूक्ष्म भी । निकटवर्ती होते हुए भी वे दूरवर्ती हैं । उनके वास्तविक स्वरूप को वेद के द्वारा भी नहीं जाना जा सकता।
विभिन्न तीर्थों के अधिष्ठाता देव के रूप में, शंकर के सर्वेश्वर, अष्टमूर्ति, जटाम आदि विविध रूपों का जो भक्तिपूर्ण विस्तृत वर्णन काव्य में हुआ है, उसमें भगवान् शंकर के दो पक्ष उभर कर आए हैं, जिन्हें क्रमश: उनका पौराणिक तथा ४५. वर्णाश्रमान्कः खलु पालयिष्यत्यलं च षष्ठांशहरः सुधर्मा । वही, ४.१७ ४६. अनाथदीनोद्धरणेन । वही, ४.२१ ४७. वही, १०.४१ ४८-५०. क्रमशः वही, १३.३८, १२.४,१३.३४ ५१. तुलना कीजिए-ईशावास्योपनिषद्, ४-५.