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जैन संस्कृत महाकाव्य द्रौपदी के स्वयम्बर के पश्चात् वे स्वत: अपने प्राणप्रिय भक्त तथा मित्र पाण्डवकुमारों से मिलने आते हैं । उनके भक्तों को त्रिकाल में भी भय नहीं सता सकता।
न कदाचित्कालतोऽपि मद्भक्ता बिभ्रते भयम् ।
संकटेषु हि सर्वेषु जाग्रद् रक्षामि तानहम् ॥ १०.४१. भाषा
भाषा की दृष्टि से काव्यमण्डन जैनार्जन संस्कृत काव्यों में उच्च पद का अधिकारी है । कवि का भाषा पर पूर्ण अधिकार है। वस्तुतः वह वाग्वश्या को भाँति उसका अनुसरण करती है। काव्यमण्डन की भाषा महाकाव्य के अनुरूप धीरगम्भीर है । उसमें सहजता तथा अलंकरण का मंजुल मिश्रण है । समर्थ होते हुए भी मण्डन ने अपने भाषा-पाण्डित्य का अनावश्यक प्रदर्शन नहीं किया है। वह भलीभाँति जानता है कि भाषा का सौन्दर्य क्लिष्टता में नहीं, सहजता में निहित है । अत: उसने यथोचित भाषा के द्वारा पात्रों के हृद्गत भावों तथा कथावस्तु की विभिन्न परिस्थितियों को वाणी प्रदान करने का प्रयास किया है। इसीलिए काव्यमण्डन की भाषा में एक ओर पारदर्शी विशदता है तो दूसरी ओर वह समाससंकुल तथा दुर्वोध है यद्यपि यह मानने में आपत्ति नहीं कि यह भाषात्मक दुर्भेद्यता काव्यमण्डन का मात्र . एक ध्रुव है । सामान्यतः वह प्रसादपूर्ण तथा सुबोध है। अपने इस भाषात्मक कौशल के कारण मण्डन प्रत्येक वर्ण्य विषय का यथार्थ चित्रण करने में समर्थ है। धधकता लाक्षागृह हो अथवा भयानक महाभिचार होम, कुन्ती की हृदयद्रावक विकलता हो या प्राणलेवा युद्ध, नारी-सौन्दर्य हो अथवा पुरुष का पौरुष, भगवान् शंकर का ताण्डव हो या गंगा की पावन धारा, ये सब प्रसंग मण्डन की तुलिका का स्पर्श पाकर मुखरित हो गये हैं। अपने प्राणप्रिय पुत्रों की सम्भावित बलि से विकल कुन्ती के शोक के वर्णन की पदावली में मानव की विवशता तथा दीनता की कसक है जिससे हतबुद्धि होकर वह विधि के प्रति आक्रोश प्रकट करके हृदय को सान्त्वना देता है ।
हा हा विधे! प्रलयमारुतवन्मदीया
मानास्त्वया किमु सुताः सुरभूरुहो वा। पञ्चव मुक्तकरुणेन यदीयदोष्णां
छायाश्रया सुखमगां जगतीतलेऽस्मिन् ॥ ७.१५. लाक्षागृह से बचकर धर्मराज अपने भाइयों को आश्वस्त करने के लिए जो शब्द कहते हैं, वे उनकी शान्तिवादी नीति के सर्वथा अनुकूल हैं। प्रतिकार का मार्ग उस अजातशत्रु को वरणीय नहीं है। उस विधिनिर्मित 'विषाद' को भूलना ही अच्छा है।