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'काव्यमण्डन : मण्डन
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ऊरूभ्यां कोमलाभ्यां नविमभरलसत्स्तम्भगर्भाश्च रम्भाः कम्पन्तेऽस्याः जिताः किं तपहिमसमयोद्भूत शैत्योष्णिमभ्याम् ।। ११.२९
पुरुष सौन्दर्य का चित्रण कौरव तथा पाण्डव कुमारों के वर्णन में देखा जा - सकता है । किन्तु कवि ने यहां उपर्युक्त दोनों प्रणालियों को छोड़कर भूषणों तथा सामान्य सज्जा से उत्पन्न सौन्दर्य का वर्णन किया है१४ ।
चरित्रचित्रण
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काव्यमण्डन के कर्त्ता ने अपने पात्रों को उनके मूल परिवेश में प्रस्तुत किया . है । अत: उसके लिए पाण्डव सद्गुणों के आगार हैं, कौरव दुर्गुणों के भण्डार | काव्य में पाण्डवों कथा कौरवों का चित्रण, समष्टि तथा व्यष्टि दोनों रूपों में, चित्रित किया - गया है । सामूहिक रूप में पाण्डव उद्धत शौर्य से सम्पन्न, महाबाहु, प्रतापी तथा धर्मानुरागी हैं । श्रीकृष्ण के प्रति उनकी अटल भक्ति है । वे धनुर्धारियों में अग्रणी हैं। उनका यश समूचे भूमण्डल में व्याप्त है । वे प्रसन्नमुख तथा सत्यवादी हैं । उन्हें प्रजा का अटूट विश्वास प्राप्त है । नीतिमत्ता उनके जीवन की धुरी है । दानशीलता में वे कल्पवृक्षों को भी मात करते हैं । वे साम्राज्यलक्ष्मी के पात्र हैं। उनका हृदय - दया तथा परोपकार की भावना से ओत-प्रोत है । वे समरांगण में सिंह की भाँति निर्भय विचरण करते हैं । वास्तव में पाण्डव अमूल्य गुणों की विशाल निधि हैं" ।
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व्यष्टि रूप में धर्मराज युधिष्ठिर शान्ति की साक्षात् प्रतिमा हैं । घोर 'विपत्तियाँ भी उनके समत्व को विचलित नहीं कर सकतीं । लाक्षागृह में यम के मुख उसे निकलने के पश्चात् वे कौरवों के प्रति किये गये अपने उपकारों तथा उनके - अपकारों को याद करके ही सन्तोष कर लेते हैं । वे अपने वीर अनुजों को भी प्रति - शोध का मार्ग छोड़ कर तीर्थयात्रा में समय व्यतीत करने का परामर्श देते हैं । उनका बिरुद 'धर्मराज' उनके व्यक्तित्व की पवित्रता तथा उदात्तता का द्योतक है, "जिसे काव्य में विशेषतः रेखांकित किया गया है । अपने गरिमापूर्ण व्यक्तित्व के कारण वे समस्त पृथ्वीमण्डल पर प्रतिष्ठित तथा समादृत हैं। उनकी वृत्ति जगत् के अभ्युदय की विधाता है । भगवान् कृष्ण भी उनके गुणों तथा व्यक्तित्व से अभिभूत हैं । द्रौपदी स्वयम्वर के बाद श्रीकृष्ण स्वयं युधिष्ठिर से मिलने के लिये आते - हैं और पादवन्दना से उनके प्रति श्रद्धा प्रकट करते हैं" ।
२४. काव्यमण्डन, १.२६-२७, ३०-३१.
२५. वही, ४.१ ५.
२६. अहानि हानिप्रचुराणि यावत्तावद्धि तीर्थाटनमाश्रयामः । वही, ४.३३.
२७. धर्मोऽधिक्षितिलब्धकीतिः । वही, १.२३
२८. तेनाभिवन्दितपदः प्रथमं ततोऽजं । वही, १३.२७