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जैन संस्कृत महाकाव्य
है, न भोक्ता । आत्मा में अन्य गुणों का आरोप करना भी सम्भव नहीं ।
मुनि लोकचन्द्र के प्रत्युत्तर के रूप में चार्वाक मत का प्रत्याख्यान किया गया है । जैन दर्शन के अनुसार आत्मा का बोध अध्यात्म ज्ञान से होता है। सुख-दुःख की अनुभूति आत्मा के अस्तित्व का निश्चित प्रमाण है क्योंकि चैतन्य के बिना उनकी संवेदना संभव नहीं और चेतना आत्मा का स्वाभाविक गुण है। आत्मा का अस्तित्व निर्णीत होने पर उसका परलोकगमन भी सिद्ध है। आत्मा पाप पुण्य की कर्ता भी है, और उनके फल की भोक्ता भी। वह स्वकृत कर्मों के अनुमार धर्माधर्म का फल भोगती है । आत्मा बन्धन और मोक्ष का भी कारण है। कषायों से पराभूत होकर वह बन्धन की ओर अग्रसर होती है, उनको पराभूत करके वह मोक्ष की दायक बनती है ।
___ कर्म जैन दर्शन का मर्म है । जैन दर्शन की मान्यता है कि कर्म के फल से बचना कदापि सम्भव नहीं। वह स्वयं रोपा गया वृक्ष है, जिसका फल इच्छा-अनिच्छा से चखना ही पड़ता है। पार्श्वनाथचरित में इस तथ्य की बार-बार आवृत्ति की गयी है । प्राणियों के सुख-दुःख, मान-अपमान आदि का निमित्त कुछ और हो सकता है, उनका कारण पूर्वकृत कर्म है। कर्मों का जब पूर्ण विलय होता है तो आत्मा निर्वाण को प्राप्त होती है। यह पूर्ण नैष्कर्म्य, शैलेशी अवस्था में होता है।" त्रिरत्न मिथ्यात्व के अन्धकार को विच्छिन्न करने के लिये दीपक के समान हैं तथा स्वर्ग
और अपवर्ग का द्वार है । त्रिरत्न से वंचित व्यक्ति संसार में भटकता रहता है।४९ इस विवेचन के अतिरिक्त काव्य में आर्त तथा शुक्ल ध्यान, मति आदि ज्ञान, उत्पाद, विगम और ध्रौव्य की पदत्रयी, द्रव्य, गुण तथा पर्याय और वाक्चिनात्मक सूक्ष्म योग का भी उल्लेख आया है ।
पार्श्वनाथचरित कवि की बालकृति है। इसका उद्देश्य विदग्ध जनों का मनोरंजन करना नहीं है। आराध्य के गुणगान का पुण्य प्राप्त करने के लिये लिखे गये इस काव्य में प्रौढोक्ति अथवा चमत्कृति का स्थान नहीं है। इसका सारा सौन्दर्य इसकी सहजता तथा सरलता में निहित है। इस दृष्टि से यह उपेक्षणीय नहीं है । युगजीवन का यथेष्ट चित्रण इसके गौरव की वृद्धि करता है । ४५. वही, २.१७४-१८६ ४६. वही, २.१८८-२१७ ४७. वही, ११४१, ३६६, २.२८४, ६.२५१ ४८. वही, ६.४१८ ४६. वही, १.६८-६९ ५०. वही, १.३६३, ६.४२१, २.७३, ५.४४४, ४४७, ६.४२०
विस्तृत विवेचन के लिये देखिये मेरा लेख-'पार्श्वनाथचरित का दार्शनिक पक्ष' महावीर स्मारिका, जयपुर, १९७५, पृ० २.५३-५६