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पार्श्वनाथचरित : हेमविजयगणि
को तत्काल फांसी दी जाती थी । "
मद्यपान का व्यसन समाज में था। शराब से विवेक और सन्तुलन दोनों बिगड़ जाते हैं। कुछ व्यक्ति शराब पीकर पागल हो जाते थे । मूर्छित होना तो - सामान्य बात थी । विषपान आत्महत्या का अचूक उपाय था । "
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मनोरंजन के साधनों में संगीत, वाद्य, मल्लयुद्ध (कुश्ती) तथा मुष्टियुद्ध का 'उल्लेख आया है ।" मदारी अथवा बहुरूपिया नाना रूप बना कर और उनका संवरण करके दर्शकों का मनोविनोद करता था । ४२
धर्म
धर्म-देशनाओं के अन्तर्गत तथा अन्यत्र भी काव्य में धर्म का सामान्य प्रतिपादन हुआ है । दान, शील, तप तथा भाव के भेद से धर्म चार प्रकार का है। पुण्य- वान् ही इस चतुर्विध धर्म का अनुष्ठान कर सकते हैं । पुण्यहीन व्यक्ति के लिये वह - कल्पतरु की भाँति दुष्प्राप्य है । दान साक्षात् कल्पवृक्ष है, जिसके पत्ते सार्वभोम भोग -हैं, पुष्प स्वर्गीय सुख हैं तथा फल महानन्द हैं । शील जीवन का सर्वस्व है । लवण• हीन भोजन की तरह उसके बिना रूप, लावण्य, तारुण्य आदि सब निरर्थक है । जो - नवगुप्तियों से युक्त शील का परिशीलन करते हैं, मुक्तिसुन्दरी उनका वरण करती है । तप समस्त दोषों तथा कलुषों को दूर करने का अचूक उपाय है । भावना (भाव), दान, शील तथा तप रूपी त्रिविध धर्म का मूलाधार है तथा भवसागर को पार करने का सम्बल है । धर्म-कर्म में भाव प्रमुख है । भावनाहीन धार्मिक क्रियाएँ करने से मनुष्य जन्म-मरण के चक्र से कदापि मुक्त नहीं हो सकता ।
दर्शन
आत्मा-विषयक शास्त्रार्थ के अन्तर्गत नास्तिक कुबेर आत्मा के सम्बन्ध में चार्वाक दर्शन की मान्यता प्रस्तुत करता है । चार्वाक के अनुसार आत्मा आकाश- कुसुम की भाँति कोई वस्तु नहीं है । मनुष्य में चेतना पंच भूतों के संयोग से प्रादुर्भूत होती है और उनके नष्ट होने पर मेघमाला की तरह सहसा विलीन हो जाती है । देह से पृथक आत्मा की सत्ता नहीं है । अतः शरीरान्त के पश्चात् उसके देहान्तर में संक्रान्त होने अथवा परलोक जाने का प्रश्न ही नहीं है । आत्मा पाप-पुण्य का न कर्ता
३६. वही, १.१२६- १३१, ६.२३३-२३४, २४२, २२७, २८६,१५४, १६५ ४०. वही, ३.१२१, ४.५०४
४९. वही, ४.४९७
४२. वही, ४.२६५-२७०, २६८-२६६
४३. वही, ४.३१५
- ४४. वही, ५.३६८-४१७