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हम्मीरमहाकाव्य : नयचन्द्रसूरि वाक्कला की प्रतिष्ठा की थी। उनकी विद्वत्ता विविध रूपों में प्रस्फुटित हुई । उन्होंने न्यायशास्त्र के प्रसिद्ध ग्रन्थ भासर्वज्ञ-कृत न्यायसार पर पाण्डित्यपूर्ण टीका लिखी, एक स्वतन्त्र व्याकरण की रचना की तथा कुमारपालचरितकाव्य का प्रणयन कर अपनी कवित्वकला का परिचय दिया। सम्भवतः इस त्रिविध उपलब्धि के कारण ही जयसिंहसूरि को 'विद्यवेदि-चक्री' की गौरवशाली उपाधि से विभूषित किया गया था। नयचन्द्र ने दीक्षा तो जयसिंह के पट्टधर प्रसन्नचन्द्रसूरि से ग्रहण की थी, किन्तु उनके विद्यागुरु जयसिंह ही थे। जयसिंह के पौत्र होते हुए भी वे, काव्यकला में, उनके पुत्र थे।
___ हम्मीरमहाकाव्य में इसके रचनाकाल का कोई प्रत्यक्ष उल्लेख नहीं है । अतः इसकी रचना कब हुई, इस विषय में कुछ निश्चित कहना सम्भव नहीं है, किन्तु काव्यप्रशस्ति के अप्रत्यक्ष संकेतों तथा अन्य स्रोतों के आधार पर कुछ अनुमान अवश्य किया जा सकता है । नयचन्द्र ने अपने काव्यगुरु जयसिंहसूरि के कुमारपालचरित का प्रथम आदर्श सम्वत् १४२२ (सन् १३६५ ई०) में किया था। इस तथ्य का निर्देश करते हुए जयसिंह का कथन है
___ अवधानसावधानः प्रमाणनिष्णः कवित्वनिष्णातः।
अलिखन मुनिनयचन्द्रो गुरुभक्त्यास्याद्यादर्शम् ॥ यदि यह युवा नयचन्द्र का यथार्थ मूल्यांकन है, तो स्वीकार करना होगा कि सन् १३६५ तक उसने साहित्य की विभिन्न शाखाओं में अच्छी गति प्राप्त कर ली थी। जैसा स्वयं नयचन्द्र ने सूचित किया है, उसे हम्मीरमहाकाव्य लिखने की प्रेरणा तोमर-नरेश वीरम के सभासदों की इस व्यंग्योक्ति से मिली थी कि प्राचीन कवियों के समान उत्कृष्ट काव्य-रचना करने वाला अब कोई कवि नहीं है । इस तोमरवंशीय शासक का सन् १४२२ तक विद्यमान होना अब सुनिश्चित है । शिलालेखों से ज्ञात होता है कि उसका पौत्र डूंगरेन्द्र सन् १४२४ में ग्वालियर के सिंहासन पर आसीन हो चुका था और वह सन् १४४० तक अवश्य विद्यमान था। इससे प्रतीत होता है कि वीरम ने दीर्घकाल तक राज्य किया था और सन् १४२२ में वह पर्याप्त वृद्ध हो गया था। वीरम का राज्यारम्भ चालीस वर्ष पूर्व मानकर उसका शासनकाल ३. वही, १४।२२-२३ ४. वही, १४।२४ ५. पौत्रोऽप्ययं कविगुरोर्जयसिंहसूरेः काव्येषु पुत्रतितमा नयचन्द्रसूरिः। वही, १४।२७ ६. कुमारपालचरित, प्रशस्ति, ६ ७. काव्यं पूर्वकवेन काव्यसदृशं कश्चिद् विधाताऽधुने___त्युक्ते तोमरवीरमक्षितिपतेः सामाजिकैः संसदि । हम्मीरमहाकाव्य, १४१४३ ८. डी. आर. भण्डारकर : इन्सक्रिप्सन्स आफ नार्दर्न इण्डिया, संख्या ७८५.