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________________ देवानन्दमहाकाव्य : मेघविजयगणि २३५ माषकाव्य से गृहीत समस्याओं की सफल पूर्ति के लिए उसी कोटि का, वस्तुतः उससे भी अधिक, गुरु-गम्भीर पाण्डित्य अपेक्षित है । माघकाव्य की भांति मेघविजय की सर्वतोमुखी विद्वत्ता का परिचय तो उनके काव्य से नहीं मिलता क्योंकि देवानन्द की विषयवस्तु ऐसी है कि उसमें शास्त्रीय पाण्डित्य के प्रकाशन का अधिक अवकाश नहीं है । किन्तु अपने कथ्य को जिस प्रोढ़ भाषा तथा अलंकृत शैली में प्रस्तुत किया है, उससे स्पष्ट है कि मेघविजय चित्रमार्ग के सिद्धहस्त कवि हैं। उनकी तथा माघ की भाषा-शैली में कहीं भी अन्तर दिखाई नहीं देता । अपने प्रयोजन की सिद्धि के लिए मेघविजय ने भाषा का जो हृदयहीन उत्पीड़न किया है, उससे जूझता-जूझता पाठक झंझला उठता है तथा इस भाषायी चक्रव्यूह में फंस कर वह हताश हो जाता है, परन्तु यह शाब्दी क्रीड़ा तथा भाषात्मक उछलकूद उसके गहन पाण्डित्य तथा भाषाधिकार के द्योतक हैं, इसमें तनिक संदेह नहीं। मेघविजय का उद्देश्य ही चित्रकाव्य से पाठक को चमत्कृत करना है । समीक्षा चित्रकाव्य की प्रकृति के अनुरूप देवानन्द की भाषा धीर तथा गम्भीर है। मेघविजय भाषा का जादूगर है । वह चेरी की भांति उसके संकेत पर नाचती है। इसी भाषाधिकार के बूते पर वह भाषा के साथ मनमाना खिलवाड़ करने में सफल हुआ है, जिसका कुछ संकेत ऊपर किया गया है । समस्यापूर्ति के कठोर बन्धन के कारण कवि को, माघ की विकटबन्ध भाषा के समकक्ष, जो पदावली प्रयुक्त करनी पड़ी है, वह सही अर्थ में क्लिष्ट है । माघ की पदशय्या को अपने सांचे में ढाल कर उससे चित्र-विचित्र अर्थ निकालना कवि के पाण्डित्य तथा भाषाधिकार का द्योतक भले हो, इससे उसकी भाषा की सहजता नष्ट हो गयी है तथा वह दुस्साध्य क्लिष्टता से आक्रान्त है । कहीं-कहीं तो उसमें दुरूहता का समावेश हो गया है । इस प्रकार के पद्य बहुश्रुत पण्डितों लिये भी करारी चुनौती है। जगत्पवित्ररपि तन्नपादः स्प्रष्टुं जगत्पूज्यमयुज्यता ss कः। यतो बृहत्पार्वणचन्द्रचार तस्यातपत्रं बिभरांबभूवे ॥ ३. २. . कविकृत टिप्पणियों के बिना इनका प्रासंगिक अर्थ समझना नितान्त असम्भव समस्यापूर्ति क्लिष्टता की जननी है । भिन्न प्रसंग में, विशिष्ट उद्देश्य से, रचित समस्या-पद के आधार पर काव्यरचना करने तथा उससे नवीन प्रासंगिक अर्थ निकालने के लिए असीम रचना-कौशल, व्याकरण-पाण्डित्य, कोशज्ञान तथा भाषायी विद्वत्ता अपेक्षित है, जो अकल्पनीय पदच्छेद तथा ज्ञाताज्ञात अर्थ रूपी बौद्धिक व्यायाम में प्रकट होती है। मेघविजय इस कला के अनुपम मल्ल हैं । देवानन्द के परिवेश में, माघ की पदावली से अभीष्ट अर्थ ग्रहण करने के लिये, मेघविजय ने
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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