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पदुसुन्दरमहाकाव्य : पद्मसुन्दर
१०१ विशेषण से अभिहित किया गया है। पद्मसुन्दर वस्तुत: तपागच्छ की नागपुरीय (नागोरी) शाखा के अनुयायी थे। पार्श्वनाथकाव्य और रायमल्लाभ्युदय से तथा पदुसुन्दर और सुन्दरप्रकाशशब्दार्णव की पुष्पिकाओं से विदित होता है कि उन्हें विद्वत्-शिरोमणि पद्ममेरु का शिष्य होने का गौरव प्राप्त था। उनके प्रगुरु आनन्दमेरु मानन्दरूपी उदयाचल के साक्षात् सूर्य थे। पद्मसुन्दर उन जैन साधुओं में अग्रणी थे, जिनका मुगल सम्रट् अकबर से घनिष्ठ सम्बन्ध था। धर्मगोष्ठी के समय सम्राट अकबर ने अपने पुस्तकालय का एक विशिष्ट ग्रन्थसंग्रह आचार्य हीरविजय को भेंट देने का प्रस्ताव किया था। हीरसूरि के उसका प्राप्तिस्रोत पूछने पर अकबर ने सूचित किया था कि यह ग्रन्थराशि तपागच्छीय विद्वान् पद्मसुन्दर की है जो ज्योतिष, वैद्यक तथा सिद्धान्तशास्त्र के कुशल पण्डित थे। उनके दिवंगत होने पर हमने उसे सुरक्षित रखा है'। पद्मसुन्दर के परवर्ती कवि देवविमलगणि ने अपने हीरसौभाग्य में इस घटना तथा उक्त ग्रन्थ राशि में सम्मिलित प्रस्तुत यदुसुन्दर सहित नाना ग्रन्थों का बादरपूर्वक उल्लेख किया है। हीरविजय अकबर से सम्वत् १६३६ मे, फतेहपुर १. इति श्रीमन्नागपुरीयतपागच्छनभोमणिपण्डितोत्तमश्रीपद्ममेरुशिष्यपण्डितश्री
पद्मसुन्दरविरचिते । सुन्दरप्रकाशशब्दार्णव की पुष्पिका। इति श्रीमत्तपोगच्छनभोमणिपण्डितोत्तमधीपद्ममेरुविनेयपण्डितेशश्रीपद्मसुन्दर विरचिते यदुसुन्दरनाम्नि महाकाव्ये"द्वितीयः सर्गः। २. पार्श्वनाथकाव्य, पुष्पिका तथा ७ । ६४
आनन्दोवयपर्वतकतरणेरानन्दमेरो रोः शिष्यः पण्डितमौलिमण्डनमणिः श्रीपद्ममेरुर्गुरुः । तच्छिष्योत्तमपद्मसुन्दरकविः श्रीरायमल्लोदयं काव्यं नव्यमिदं चकार सकलाहवृत्तभव्यांकितम् ॥
रायमल्लाभ्युदय, अन्तिम प्रशस्ति, १०० ३. सूरीश्वर अने सम्राट्, पृ० १२०, "जैन साहित्य और इतिहास" में उद्धृत,
पृ. ३९६, पा० टि० ३ ४. (अ) पुराभवत्प्रीतिपदं वयस्यवद्विशारदेन्दुमम पद्मसुन्दरः । ने येन सेहेऽम्बुरुहामिवावली हिमर्तुना पण्डितराजगविताम् ॥
... हीरसौभाग्य १४.६१ जगाम स स्वर्णिमृगीदृशां दृशामथातिथेयों परिणामतो विधेः । मुहुर्मयाशोचि स वातपातिताजिरप्ररूढामरसालवतिभो ॥ वही, १४.६२ इदं तदात्तसमस्तपुस्तकं मुनीश्वरा मामनुगृह्य शिष्यवत् । यवत्र पात्रप्रतिपादनं नृणां भवाम्बुराशौ कलशीसुतीयते ॥ वही, १४.९६