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नेमिनाथमहाकाव्य : कीर्तिराज उपाध्याय
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प्रबल आकर्षण के समक्ष आत्मसमर्पण न करना कीर्तिराज की भाषात्मक सुरुचि का द्योतक है । नेमिनाथमहाकाव्य की भाषा महाकाव्योचित गरिमा तथा प्राणवत्ता से मण्डित है । कवि का भाषा पर यथेष्ट अधिकार है किन्तु अनावश्यक अलंकरण की ओर उसकी प्रवृत्ति नहीं है । इसीलिये उसके काव्य में भावपक्ष और कलापक्ष का मनोरम समन्वय है । नेमिनाथमहाकाव्य की भाषा की मुख्य विशेषता उसका सन्तुलन । वह प्रत्येक भाव अथवा परिस्थिति को तदनुकूल शब्दावली में व्यक्त करने में समर्थ है किन्तु प्रांजलता की अन्तर्धारा उसमें सर्वत्र प्रवाहित है । श्लेष तथा यमक जैसे शब्दालंकार भी उसकी प्रांजलता को आहत नहीं कर सके । भावानुकूल शब्दों के विवेकपूर्ण चयन तथा कुशल गुम्फन से ध्वनिसौन्दर्य की सृष्टि करने में कवि सिद्धहस्त है । अनुप्रास तथा यमक के विवेकपूर्ण प्रयोग से काव्य में मधुर झंकृति का समावेश हो गया है । प्रस्तुत पद्य में यह विशेषता देखी जा सकती है ।
गुरुणा च यत्र तरुणाऽगुरुणा वसुधा क्रियते सुरभिर्वसुधा । कमनातुरेति रमणैकमना रमणी सुरस्य शुचिहारमणी ।। ५.५१
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यद्यपि समूचा काव्य प्रसाद-गुण की माधुरी से ओत-प्रोत है, किन्तु सातवें तथा नवें सर्ग में प्रसाद का सर्वोत्तम रूप दीख पड़ता है । इनमें जिस सहज, सरल तथा सुवोध भाषा का प्रयोग हुआ है, उस पर साहित्यदर्पणकार की यह उक्ति चित्तं व्याप्नोति यः क्षिप्रं शुष्केन्धनमिवानलः' अक्षरशः चरितार्थ होती है । कोमल भावों के चित्रण में वैदर्भी का उदात्त रूप विद्यमान है जिसमें माधुर्यव्यंजक समासहीन अथवा अल्पसमास युक्त पदावली का प्रयोग विहित है । नेमिनाथ काव्य के श्रृंगार आदि प्रसंग वस्तुतः अल्पसमास वाली पदावली में निबद्ध हैं । युवा नेमिनाथ को विषय भोगों की ओर आकृष्ट करने के लिये भाषा की सरलता के साथ कोमलता भी आव श्यक थी ।
विवाहय कुमारेन्द्र ! बालाश्चंचललोचनाः । भुंक्ष्व भोगान् समं ताभिरप्सरोभिरिवामरः ।। ६,१२ हेमाजगर्भगौरांगीं मृगाक्षीं कुलबालिकाम् ।
ये नोपभुंजते लोका वेधसा वंचिता हि ते ।। ६.१४
कठोर प्रसंगों की भाषा ओज से परिपूर्ण है । ओजव्यंजक शब्दों के द्वारा
अतीव समर्थ बनाया है ।
योजना की गयी है, वह
यथेष्ट वातावरण का निर्माण करके कवि ने भावव्यंजना को पांचवे सर्ग में, इन्द्र के क्रोध वर्णन में, जिस पदावली की
अपने वेग तथा नाद से हृदय में स्फूर्ति का संचार करती है । इस दृष्टि से यह प विशेष दर्शनीय है ।
विपक्षपक्षक्षयबद्धकक्ष : विद्युल्लतानामिव संचयं तत् ।
स्फुरत्स्फुलिंगं कुलिशं करालं ध्यात्वेति यावत्स जिघृक्षति स्म ।। ५.६