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नेमिनाथमहाकाव्य : कीतिराज उपाध्याय
यत्र भ्रमभ्रमराननामवेक्ष्य कोपादिव मूनि पद्मिनीम् । स्वप्रेयसीं लोहितमूर्तिमावहन कठोरपानिजघान तापनः ॥२.४२
निम्नोक्त पद्य में लताओं को प्रगल्भा नायिकाओं के रूप में चित्रित किया गया है, जो पुष्पवती होती हुई तरुणों के साथ बाह्य रति में लीन हैं।
कोमलांग्योऽपि लताकान्ताः प्रवत्ता यस्य कानने । पुष्पवत्योऽप्यहो चित्रं तरुणालिंगनं व्यधुः ॥१.४१
काव्य में प्रकृति का अलंकत चित्रण कवि-कल्पना से दीपित है । विविध अलंकारों का आश्रय लेकर कीतिराज ने प्रकृति का जो वर्णन किया है वह उसकी काव्यप्रतिभा का परिचायक है। इस कल्पनाशीलता के कारण सामान्य प्राकृतिक पदार्थों का वर्णन भी काव्य-सुषमा के उच्च धरातल का स्पर्श करता है। मेरु की उपत्यका का श्यामल वन ऐसा प्रतीत होता है मानो करिप्रदेश से गिरा उसका नील परिधान हो (५.२६) । सरोवरों में खिले कमलों की पंक्तियां, जिन पर भौंरे बैठे थे, ऐसी शोभित हुईं मानो जलदेवता ने शरत् के नवीन सौन्दर्य देखने के लिये नाना प्रकार से अपनी आंखें उघाड़ी हों।
समधुपाः स्मितपंकजपंक्तयो रुचिरे रुचिरेषु सरःस्वथ । नवशरच्छियमीक्षितुमातनोदिव दृशः शतधा जलदेवता ॥८.४१
अलंकृत वर्णन के अन्तर्गत कीतिराज ने कहीं-कहीं दूर की कौड़ी फैकी है। मेरुपर्वत को खलिहान के मध्यवर्ती खूटे का रूप देने की आतुरता के कारण, रूपक की पूर्ति के लिये, ज्योतिश्चक्र, अन्धकार तथा आकाश पर क्रमशः बैलों, अन्न तथा खलिहान का आरोप करना दूरारूढ़ कल्पना है ।
ज्योतिष्कचक्रोक्षकदम्बकेन दिने रजन्यां ज विगाह्यमाने । तमोऽन्नभृद्व्योमखले विशाले दधाति यश्चान्तरकीलकत्वम् ॥५.४६
इस प्रकार कीतिराज ने प्रकृति के विविध रूपों का विविध शैलियों में वर्णन किया है। पूर्ववर्ती संस्कृत महाकाव्यकारों की भाँति उसने प्रकृतिचित्रण में यमक की व्यापक योजना की है, किन्तु उसका यमक न केवल दुरूहता से मुक्त है अपितु इससे प्रकृति-वर्णन की प्रभावशालिता में वृद्धि हुई है । सौन्दर्य-चित्रण
नेमिनाथ-महाकाव्य में कतिपय पात्रों के कायिक सौन्दर्य का हृदयग्राही चित्रण किया गया है, किन्तु कवि की कला की विभूति राजीमती तथा देवांगनाओं के चित्रों को ही मिली है। चिर-प्रतिष्ठित परम्परा के अनुरूप कीतिराज ने नखशिखविधि से अपने पात्रों के अंगों-प्रत्यंगों के सौन्दर्य की अभिव्यक्ति की है। वर्णन-प्रणाली की भांति उसके अधिकतर उपमान भी चिरपरिचित तथा रूढ़ हैं, किन्तु उसकी काव्य