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जैन संस्कृत महाकाव्य
स्वभावोक्तियों में कीर्तिराज का सच्चा कवित्व प्रकट हुआ है । शुकशारिका द्विकपिकादिपक्षितः परिरक्ष्यमाणमभितः कृषीवलः । प्रसमीक्ष्यतां स्वफलभारमंगुरं परिपक्वशालि वनमायते क्षणि ॥१२.८
हासकालीन महाकाव्य की प्रवृत्ति के अनुसार कीर्तिराज ने प्रकृति के उद्दीपन रूप का भी पल्लवन किया है। उद्दीपन रूप में प्रकृति मानव की भावनाओं एवं मनोरागों को झकझोर कर उसे अधीर बना देती है ! ऋतु-वर्णन में प्रकृति के उद्दीपन पक्ष के अनेक मनोहर चित्र अंकित हुए हैं । वसन्त के मोहक वातावरण में कामी जनों की विलासपूर्ण चेष्टाएं देखकर विरही पथिकों के संयम का बांध टूट जाता है और वे अपनी प्रियाओं से मिलने को आतुर हो जाते हैं" हेमन्त का शीत वीतराग योगियों के मन को भी विचलित कर देता है" । प्रस्तुत पंक्तियों में स्मरपटह के सदृश घनगर्जना विलासी जनों की कामाग्नि को प्रज्वलित कर रही है। जिससे वे रणशूर, कामरण में पराजित होकर, प्राणवल्लभाओं की मनुहार करने को विवश हो जाते हैं ।
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स्मरपतेः पटहानिव वारिदान् निनदतोऽथ निशम्य विलासिनः । समदना न्यपतन्नवकामिनीचरणयो रणयोगविदोऽपि हि ॥८.३७
उद्दीपन पक्ष के इस वर्णन में प्रकृति पृष्ठभूमि में चली गयी है और प्रेमी युगलों का भोग-विलास प्रमुख हो गया है, किंतु इसकी गणना उद्दीपन के अन्तर्गत ही की जाएगी।
प्रियकरः कठिनस्तनकुम्भयोः प्रियकरः सरसार्तवपल्लवैः । प्रियतमां समवीजयदाकुलां नवरतां वरतान्तलतागृहे ॥ ८. २३
करने लगती है । प्रकृति के
नेमिनाथ महाकाव्य में प्रकृति का मानवीकरण भी किया गया है। प्रकृति पर मानवीय भावनाओं तथा कार्यकलापों का आरोप करने से उसमें प्राणों का स्पन्दन होता है और वह मानव की तरह आचरण मानवीकरण से कीर्तिराज ने मानव तथा प्रकृति के सहज साहचर्य को रेखांकित किया है । प्रात:काल, सूर्य के उदित होते ही, कमलिनी विकसित हो जाती है और भौंरे उसका रसपान करने लगते हैं । कवि ने इसका चित्रण सूर्य पर नायक और भ्रमरों पर परपुरुष का आरोप करके किया है । अपनी प्रेयसी को पर पुरुषों से चुम्बित देखकर सूर्य (पति) क्रोध से लाल हो गया है और कठोर पादप्रहार से उस व्यभिचारिणी को दण्डित कर रहा है ।
१७. वही, ८.२०
१८. वही, ८.५२