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बंकचूलचरियं
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१२. राजा उसके (पुष्पचूला के) घर आकर अपनी पुत्री को धैर्य बंधाता है और कहता है-पुत्रि ! अब शोक करने से क्या होगा ? जो लिखा था वह हो गया ।
१३. इस संसार में अपना क्या है ? फिर भी मूढ व्यक्ति दूसरे को अपना कहकर उसके विनाश होने पर दुःखी होते हैं । ममत्व ही सदा दुःख का हेतु है ।
१४. पुत्रि ! इस संसार में कोई भी वस्तु अपनी नहीं है । फिर उसके नष्ट होने पर दुःख क्यों ? अत: तुम शीघ्र ही दुःख को छोड़कर धर्म में लीन हो जाओ ।
१५. इस प्रकार पुत्री को प्रेरणा देकर और उसे लेकर वह अपने नगर आ गया । क्योंकि दुःख के समय में कन्या को माता-पिता का ही आश्रय होता है ।
१६. माता-पिता के आश्रय को पाकर वह अपने दुःख को हल्का करती है । लेकिन उसका मन धर्म में नहीं लगता। क्योंकि कर्मों से भारी व्यक्तियों के लिए धर्माचरण सरल नहीं है ।
१७. इधर पुष्पचूल कुसंगति को पाकर चोरी करने लगा। कुसंगति से मनुष्यों का संसार में क्या-क्या अहित नहीं होता ?
१८. कई व्यक्ति धन के अभाव में चोरी करते हैं, कई दुर्व्यसनों में पड़कर और कई कुसंगति के कारण चोरी करते हैं ।
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१९. लेकिन चोरी जघन्य कार्य है ऐसा जिनेश्वर देवों ने कहा है । इससे निन्दा होती है और वैर बढ़ता है । अतः मनुष्यों को चोरी छोड़ देनी चाहिए।
२०. वह पुष्पचूला भी अपने भाई के कार्य में अपना सहयोग देने लगी । गिरे हुए व्यक्ति को और अधिक गिराने वाले संसार में बहुत मनुष्य हैं ।
२१. अपने कार्यों में बहिन का सहयोग पाकर उसका मनोबल बढ गया । वह निर्भय होकर चोरी करने लगा और प्रजा को पीड़ित करने लगा ।
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२२. जब रक्षक ही भक्षक बन जाते हैं तब प्रजा की सदा कुदशा होती है ऐसे समय में यदि मनुष्य कुछ भी नहीं करते हैं, तो उनका निश्चित ही अहित होता
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द्वितीय सर्ग समाप्त