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मियापुत्तचरियं
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प्रथम सर्ग
१. इस जंबूद्वीप में प्राचीनकाल में मृगाग्राम नामक एक सुंदर नगर था। वह नगर ऋद्ध, स्तिमित और समृद्ध था।
२.वहां विजय नामक क्षत्रिय राजा रहता था। वह नीतिज्ञ, न्यायवान्, जनप्रिय और प्रजा का हिताभिलाषी था।
३. मृगादेवी उसकी रानी थी । वह गुणसंपन्न, रूप-लावण्य युक्त, राजा के चित्त का अनुगमन करने वाली और मृदुभाषिणी थी।
४. वह संतान के सुख को चाहती थी। एक बार वह गर्भवती हुई । इस संसार में कौन स्त्री पुत्र के सुख को नहीं चाहती ?
५. जब यह गर्भ उसके उदर में आया तब उसके पेट में प्रचुर पीड़ा हुई और वह राजा की भी अप्रिय हो गई।
६.राजा न उसके समीप में जाता और न बात करता । इस स्थिति को देखकर वह मन में विचार करने लगी
७. गर्भधारण के पूर्व मैं सदा राजा को प्रिय थी। किंतु अब राजा मेरा नाम भी सुनना नहीं चाहता है।
८. तब उसके साथ भोग की बात दूर ही है । यह सब प्रभाव इस गर्भस्थित जीव का है।
९. अत: मैं औषध-प्रयोग से इस जीव को नष्ट करूंगी। जन्म के पूर्व ही जो इस प्रकार का है वह बाद में क्या करेगा?
' १०. ऐसा चिंतन कर वह औषध-प्रयोग से उसको नष्ट करने के लिए चेष्टा करने लगी किंतु वह नष्ट नहीं हुआ। क्योंकि आयुष्य कर्म बलवान् होता है। .
११. तब वह खिन्नमना होकर उस गर्भ का पालन करने लगी। नव मास पूर्ण होने पर उसने एक पुत्र को जन्म दिया।