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पएसीचरियं
३७. मैं अभी श्रावस्ती नगरी की ओर जा रहा हूँ। आप वहीं आये, यह मेरा निवेदन है।
३८. वह श्रावस्ती नगरी दर्शनीय और मनोहर है । कृपा कर वहां आये, यह मेरी प्रार्थना है।
३९. उसके वचन सुनकर केशी स्वामी कुछ नहीं बोले । चित्र ने पुन: निवेदन किया । तब केशी स्वामी ने उसको कहा
४०. चित्र ! श्रावस्ती नगरी दर्शनीय और मनोरम है । लेकिन तुम्हारा राजा प्रदेशी अधार्मिक है।
४१-४२. वह साधु-संग से रहित है और प्रजा जनों को पीडित करने वाला है। वहां हमारा गमन उसी प्रकार उचित नहीं है जिस प्रकार शिकारी से परिपूर्ण पुष्प, फलयुत, मनोरम वन में पशुओं का जाना।
४३. जिनेश्वर देव ने वहीं साधुओं का गमन प्रशंसित माना है जहां ज्ञान, दर्शन, चारित्र की वृद्धि होती है।
४४. तुम्हारी श्रावस्ती नगरी साधुओं के योग्य नहीं है । अत: हमारा वहां जाना उचित नहीं है।
४५. केशी स्वामी के वचन सुनकर चित्र ने उनको निवेदन किया- श्रावस्ती नगरी में अनेक भद्र व्यक्ति रहते हैं।
४६ वे निश्चित ही आपको वंदन करेंगे, आपका सत्कार करेंगे और आपको यथायोग्य स्थान, भोजन आदि देंगे।
४७. तब आपको राजा से क्या प्रयोजन है ? अत: आप वहां आये, यह मेरा निवेदन है।
४८-४९. उसके कथन को सुनकर केशी स्वामी ने उसे स्वीकार कर लिया। मन में प्रसन्न होकर चित्र ने केशी स्वामी को वंदन किया और कहा- स्वामिन् ! शीघ्र वहां आये। मैं चातक की तरह वहां आपकी प्रतीक्षा कर रहा हूँ।