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पहले वीणा के तारों में रागमंजरी की लहरें थिरकने लगीं। फिर विक्रमा ने मृदु-मंजुल स्वरों से रागमंजरी की आराधना प्रारम्भ की।
वहां बैठे हुए व्यक्तियों के नयन विक्रमा की ओर स्थिर हो गये। राग के प्रभाव से जलकुंभ से जल के उछलने की बात सबके लिए नई थी। सबके नयनों में जिज्ञासा चमक रही थी।
लगभग अर्धघटिका पर्यन्त स्वरान्दोलन का सृजन कर विक्रमा ने भगवान् शंकर की स्तुति प्रारम्भ की।
मृदंगवादक त्रिताल देने लगा। एक घटिका पूरी हुई। गायिका का राग मधुर और गंभीर था। गीत हृदय को बींधने वाला था।
वीणा के तारों से भैरव परिवार की गुप्त गिनी जाने वाली राग 'रागमंजरी' मुक्तभाव से गायिका के स्वरों को तरबतर कर रही थी।
उसकी दृष्टि कभी विक्रमा की ओर और कभी जलकुंभ की ओर संचरण करती थी।
अभी तक जलकुंभ का जल स्थिर था। दो घटिकाएं बीत गईं-गीत मध्यम लय में आया।
और सभी ने आश्चर्य के साथ देखा कि संकरे मुंह वाले जलकुंभ से जल उछलकर पुन: उसी में समा जा रहा था-सभी दर्शक अवाक् बन गए।
कुछ ही क्षणों के पश्चात् जल पुन: उछला और चौड़े बर्तन में आ गिरा। विक्रमा तो स्वस्थ हृदय से रागमंजरी की आराधना में तल्लीन हो रही थी।
रूपमाला के वाद्यकारों ने विविध रागों के प्रभाव के विषय में बहुत कुछ सुन रखा था, पर जल में इस प्रकार की गति हो सकती है, यह अश्रुतपूर्व था।
रूपमाला के वीणावादक ने एक महान् संगीतकार की साधना में जलस्तम्भन की क्रिया देखी थी, पर गति अदृष्टपूर्व थी।
रूपमाला भी विक्रमा की इस आराधना को देखकर परम आश्चर्य का अनुभव कर रही थी।
मदन और काम इतना अवश्य जानती थी कि विक्रमा अवंती की गायिका नहीं है, किन्तु स्वयं अवंती के अधीश्वर हैं। क्या महाराजा ने ऐसी भव्य साधना की है ? क्योंकि इस चमत्कार के पीछे अग्निवैताल की इच्छाशक्ति काम कर रही है, यह कौन जानता था?
विक्रमा के सुन्दर और मधुर कंठों से शब्द धीर-गंभीर बनकर अतिवेग से निकल रहे थे। ६२ वीर विक्रमादित्य