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________________ एक घटिका के पश्चात् द्रुतलय प्रारम्भ हुआ-जलकुंभ का जल क्षण-क्षण में उछलने लगा। फिर भी जलकुंभ का जल उतना ही रहा। इस चमत्कार को देखकर सब अवाक रह गए। किसी का ध्यान रागमंजरी के स्वर-कल्लालों की ओर नहीं रहा। रात्रि का चौथा प्रहर कुछ ही शेष था। रागमंजरी की माधुरी, वीणा के तारों से बिखरती हुई रागिनी की सुवास और रागिनी के प्रभाव का चमत्कार। ___ जैसे कुंभ का जल उछल रहा था, वैसे ही नरेन्द्रदेव का हृदय भी उछल रहा था-ऐसी महान् कलालक्ष्मी को कैसे हस्तगत किया जा सकता है ? विक्रमा के रूप और यौवन से वह क्षुब्ध हो चुका था। विक्रमा ने राग का अन्तिम रूप प्रस्तुत कर वीणा को एक ओर रख दिया। और कुंभ का जल मानो कि गायिका का अभिनन्दन करता हो, इस प्रकार उसके मस्तक पर अंजलीरूप में गिरा। जितवाहन खड़े हो गए और भावभरे स्वरों में बोले- 'धन्य हैं देवी विक्रमा! रूप! आज मैं तुम्हें भी धन्यवाद देता हूं। यदि तुमने मुझे निमंत्रण नहीं दिया होता तो ऐसी महान् साधना को मैं साक्षात् कैसे करता?' सभी वाद्यकार भावावेश में आकर देवी विक्रमा के चरणों में गिर पड़े। जलकुंभ तो भरा हुआ ही था, चौड़ा पात्र भी भर गया और सभी के मन में प्रश्न उठा, इतना जल कहां से आया ? कुंभ तो भरा हुआ ही है, चौड़े पात्र का जल कुंभ के जल से दुगुना है। विक्रमा आसन से उठी। रूप-मुग्ध बना हुआ नरेन्द्रदेव निकट आया और उसने अपने कंठ से मौक्तिक हार निकालकर विनम्र स्वर में कहा-'देवी! आज मैं धन्य बना हूं- मेरी ऊर्मी को सत्कृत करें।' विक्रमा ने मुस्कराते हुए मौक्तिक हार स्वीकार कर लिया। नरेन्द्रदेव बोला- 'मेरी एक प्रार्थना है।' 'कहें, क्या कहना चाहते हैं?' 'मेरे भवन पर पधारने का निमंत्रण देता हूं।' 'मैं धन्य हुई। किन्तु कल मुझे राजकुमारी के पास रहना है-वहां से आने के पश्चात् आपके निमंत्रण को स्वीकार करूंगी।' विक्रमा ने कहा। उसके पश्चात् जितवाहन और उनके सभी साथी वहां से विदा हुए। विक्रमा ने मौक्तिक हार वाद्यमंडली के सदस्यों को दे दिया। प्रात:काल हो चुका था। वीर विक्रमादित्य ६३
SR No.006163
Book TitleVeer Vikramaditya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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