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मदन बोली- 'देवी ! मैंने सुना है कि आपने रागमंजरी की अपूर्व साधना की है-उस साधना का हमें दर्शन कराएं।'
'सखी की इच्छा का मैं सत्कार करती हूं-किन्तु रागमंजरी के गाने के पश्चात् अन्य कोई राग नहीं गाया जा सकेगा।'
मदन उत्तर दे, उससे पहले ही वीणावादक ने पूछा- 'देवी ! रागमंजरी राग के विषय में.....।
बीच में ही विक्रमा ने वीणावादक की ओर मुड़कर कहा-'आचार्य ! भैरव परिवार की यह रागिनी योगियों और भक्त संप्रदाय की परम्परा से प्राप्त हुई है। वीणा मैं धारण करूंगी, क्योंकि संगीतशास्त्र से परे है रागमंजरी।' फिर उसने रूपमाला की ओर देखकर कहा- 'रागमंजरी पांच-सात रागों की श्रृंखला नहीं है-यह एक स्वतन्त्र रागिनी है। इसका प्रभाव अपूर्व है। इसके लिए एक चौड़ा पात्र तथा जलकुंभ आवश्यक होगा। स्वरमंजरी की आराधना से जलकुंभ का जल स्वयं उछलने लगेगा, यह है इस राग का चमत्कार।'
'आप यह क्या कहती हैं ? यह तो पटयोग राग के चमत्कार से भी बड़ा चमत्कार है।' रूपमाला ने आश्चर्य के साथ कहा।
महाराजकुमार जितवाहन संगीतज्ञ नहीं थे, किन्तु रूपमाला के संयोग से वे संगीतप्रेमी बन गये थे। वे श्रद्धाभरी नजरों से विक्रमा की ओर देखने लगे।
नरेन्द्रदेव को संगीत और रागिनी के चमत्कार के प्रति कोई रस नहीं थाउसका तो रस विक्रमा के रूप-यौवन में ही था।
अर्धघटिका काल में सभी तैयारियां सम्पन्न हुईं। विक्रमा वाद्यमंडली के समक्ष एक गादी पर बैठ गई। वीणावादक ने अपनी वीणा विक्रमा के सामने रख दी।
___ एक दासी ने चौड़ा बर्तन और जलकुंभ विक्रमा से पांच हाथ की दूरी पर रख दिया।
मृदंगवादक असमंजस में फंस गया। नूतन गायिका और अपरिचित राग, किन्तु विक्रमा ने उसे निकट बुलाकर कहा- 'महाशय! आप संकोच न करें। मैं त्रिताल में ही गाऊंगी।'
मृदंगवादक आश्वस्त हुआ।
विक्रमा ने वीणा के तारों का अनुसंधान किया-मृदंगवादक ने भी मृदंग को ठीक-ठाक किया।
और सबके लिए अपरिचित रागमंजरी नाम की रागिनी का स्वर-धुन वीणा में से प्रसृत होने लगा। रात्रि का तीसरा प्रहर कभी का प्रारम्भ हो चुका था।
वीर विक्रमादित्य ६१