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बारंबार वह विक्रमा को देखता और एक अव्यक्त आशा को संजोता रहता । अवंती की इस श्रेष्ठ गायिका को निमंत्रण देना चाहिए- उसके साथ उपवन-विहार करना चाहिए और वह जो मांगे, उसे देकर एक बार उसे अंकलक्ष्मी बनाना चाहिए । रूपयौवना के प्रति मोह पैदा होना, यह दोष नूतन नहीं है, सनातन है। महासती सीता के रूप-यौवन पर महावैज्ञानिक और प्रकाण्ड पंडित रावण क्या मुग्ध नहीं बना था ?
भगवान् शंकर जैसे महातपस्वी भी एक भीलनी के रूप पर क्या मूढ़ नहीं हुए थे ?
द्रौपदी पर मुग्ध होकर कीचक भाइयों ने क्या विनाश को निमंत्रण नहीं दिया था ?
कोई भी व्यक्ति जो नारी के रूप-यौवन को लालचभरी दृष्टि से देखता है, वह कभी परिणाम की परवाह नहीं करता, क्योंकि लालसा की अग्नि इतनी तीव्र होती है कि वह मनुष्य के विवेक को लील जाती है।
नरेन्द्रदेव कोई महापुरुष नहीं था। उसका पद- गौरव बड़ा था । भवन में दो पत्नियां थीं । काया स्वस्थ, सुदृढ़ और सुरूप थी । यौवन का अस्तकाल अभी दूर था। शस्त्र और संरक्षण उसके व्यवसाय या अध्ययन के अंग थे।
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ऐसा पुरुष यदि रूपवती विक्रमा को देखकर आकर्षित हो तो इसमें आश्चर्य ही क्या है ?
रूप और यौवन का सुमेल आकर्षक ही होता है, ऐसी बात नहीं है। उस सुमेल में से जादूभरी माया प्रवृत्त होती है और वही माया सबको अपनी ओर खींचती है।
नरेन्द्रदेव के नयन विक्रमा के शरीर पर अटक गये थे। किन्तु उस बेचारे ज्ञात नहीं था कि गायिका विक्रमा अवंती की कलारानी नहीं, अवंती के स्वामी विक्रमादित्य हैं।
दोनों बहनें अपना नृत्य पूरा करें, उससे पूर्व ही वैताल मनपसन्द भोजन
कर आ गया।
फिर मदन और काम का नृत्य सम्पन्न हुआ ।
विक्रमा ने दोनों बहनों को उत्साहपूर्वक धन्यवाद दिया ।
फिर सभी ने दोनों बहनों की कलासिद्धि को सराहा और कला - निपुणता के लिए हृदय से प्रशंसा-वचन कहे ।
मदनमाला ने विक्रमा से कहा- 'देवी! अब आप हमारी एक इच्छा पूरी करें ।' विक्रमा ने मुस्कराते हुए प्रश्नभरी दृष्टि से मदनमाला की ओर देखा ।
६० वीर विक्रमादित्य