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होकर अपने पौरुष का अत्यन्त अपमान किया है। वैताल बार-बार जो कहता था, उसका कारण यही था, किन्तु अब दूसरा कोई मार्ग भी नहीं रहा है। जो काम हाथ में लिया है, उसे तो पूरा करना ही होगा।
वह इस प्रकार विचारों में उन्मजन-निमज्जन कर रही थी कि इतने में ही दरवाजे पर दस्तक सुनाई दी। रूपमाला की दासी अन्दर आकर बोली- 'देवी! सभी आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं।'
'मैं तैयार हूं।' कहकर विक्रमा दासी के पीछे-पीछे मध्य खण्ड में आयी, वहां आज का समारम्भ समायोजित था।
खण्ड के चारों ओर दीपमालिकाएं जगमगा रही थीं। रूपमाला की वाद्य-मण्डली यथास्थान बैठ गई। रूप, मदन और काम भी यथास्थान बैठ गईं। भट्टमात्र, वैताल और दूसरे मनुष्य एक और बैठ गए।
महाराजकुमार और उनके सभी साथी निर्धारित स्थान पर बिछी हुई गादी पर बैठ गए।
विक्रमा ने सबको नमन किया।
रूपमाला पुष्पहार लेकर उठी और विक्रमा के पास आकर बोली-'देवी विक्रमा का भावभरे हृदय से स्वागत करती हूं।'
रूपमाला ने विक्रमा को हार पहनाया। विक्रमा ने हाथ जोड़कर रूप के स्वागत को स्वीकार किया।
जितवाहन और उनके साथी अवंती की मदभरी गायिका को एकटक देखने लगे।
किन्तु अड़तालीस वर्ष के बलाधिकृत नरेन्द्रदेव की दृष्टि विक्रमा पर स्थिर हो गई थी।
विक्रमा को देखते ही उनका हृदय कल्लोलित हो उठा था।
रूपमाला ने अपने प्रियतम की ओर देखकर कहा- 'सभारंभ को प्रारंभ करने की आज्ञा मांगती हूं।'
जितवाहन ने मात्र मधुर हास्य से आज्ञा दे दी। वाद्यमंडली के सदस्यों ने कल्याण की स्वरमाला का अनुसंधान किया।
और महाबलाधिकृत नरेन्द्रदेव विक्रमा के रूप को देखकर परवश हो गया। उसके मन में एक तरंग उठी-किसी भी उपाय से मैं इस नवयौवना का आलिंगन लूं, तभी मेरा जन्म सार्थक है।
यमन राग में ही वाद्यमंडली ने देवी सरस्वती की प्रार्थना प्रारम्भ कर दी। ५८ वीर विक्रमादित्य